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( ३ )

दूसरे दिन पं० चंद्रकान्त तथा रजनीगन्धा कार द्वारा लखनऊ पहुँचे। दिन भर इधर उधर घूमने के पश्चात सन्ध्या समय ये दोनों अपने परिचित होटल में पहुँच गये। होटल के मैनेजर ने मुस्कराते हुये इनका स्वागत किया। रजनीगन्धा ने पूछा--"हमारा रूम खाली है?"

"खाली है सरकार! आप का रूम तो मैं अधिकतर खाली ही रखता हूँ कि न जाने कब सरकार तशरीफ ले आवें।"

"बड़ी मेहरबानी है।"

होटल के गेराज में कार खड़ी कर के दोनों अपने कमरे में पहुँचे। कमरा काफी बड़ा था। एक ओर दो पलङ्ग बराबर एक दूसरे से सटे हुये बिछे थे। पलंग पर विस्तर भी लगे हुये थे। दूसरी ओर एक सिंगार मेज लगी थी एक ओर कपड़े टाँगने की अल्मारी थी--दीवार पर भी खूँटियाँ थीं। बीच में एक छोटी सी गोल मेज के चारों ओर चार कुर्सियाँ बिछी थीं। एक ओर गुसलखाने में जाने का द्वार था। दो बत्तियां तया पङ्खा भी था। रजनीगन्धा ने पङ्खा खोलते हुये कहा---"अब गर्मी पड़ने लगी।"

दोनों ने कोट उतार कर टाँग दिए और कुर्सियों पर बैठ कर हवा खाने लगे। थोड़ी ही देर बाद एक ब्वाय आया और उसने पूछा---"खाना कब खाइयेगा।"

"खाना! नौ बजे! अभी तो जरा नहाना है।"

"बहुत अच्छा!" कह कर ब्वाय जाने लगा। रजनी गन्धा ने उसे रोक कर कहा---"जरा सुनना। वह अल्लहरक्खू कहाँ है।"

"है। बुलवाऊं?"

"हाँ"

ब्वाय चला गया। चन्द्रकान्त मुस्कराकर बोले--"क्या मजाल जो चूक जाय! अबे कभी कभी तो भूल जाया कर।"

"भूलने वाले की ऐसी-तैसी! और मैं भूल जाऊँ तो तुम कैसे हो-