पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१३६

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
-१२७-
 

संध्या समय बिजली की रोशनी से कोठी जगमगा उठी। ब्रजनंदन, दर साहब, महेन्द्रसिंह तथा बाबू साहब के अन्य लोग प्रबन्ध में व्यस्त थे। बड़े धूम से दावत हुई जिसमें नगर के बड़े-छोटे हाकिम-हुक्काम सम्मिलित हुए। रंडियों के चार डेरे और एक मण्डली भाँड़ों की थी।

एक कमरा प्राइवेट रक्खा गया जिसमें पीने का सामान था। इस प्रकार बड़ी धूमधाम तथा हर्षोल्लास हो रहा था।

नशे में ब्रजनन्दन खूब उछलता फिर रहा था। थोड़ी थोड़ी देर बाद प्राइवेट रूम में जाकर एक-दो पेग जमा आता।

रामू भी बड़े उत्साह से दौड़ा दौड़ा फिर रहा था। उसे पहनने के लिये नये कपड़े मिले थे।

सहसा ब्रजनन्दन ने कोठी पर लगी हुई बत्तियों की और देख कर कहा---"यह बीच की चार पांच बत्तियाँ कैसे बुझ गई?"

एक व्यक्ति देख कर बोला --"जान पड़ता है फ्यूज हो गई।"

"पंक्ति टूटी हुई बुरी मालूम होती है। बिजली-मिस्त्री कहाँ है, उससे कही बत्तियाँ बदल दे। अभी फौरन बदले।"

कुछ क्षण पश्चात् वह व्यक्ति आकर बोला---"मिस्त्री तो अभी अभी चला गया है---आध घंटे के लिए।"

"वह क्यों गया, उसको यहीं हाजिर रहना था।"

पास ही रामू खड़ा था, वह बोला--"पूछ गया है। कहता था जरा हो आऊँ फिर रात भर यहीं रहूँगा।"

"बत्ती तो हमारे पास है, कोई लगाने वाला चाहिए।" ब्रजनन्दन बोला।

रामू बोल उठा---"लाइये, मैं लगा दूंँगा।"

"तू जानता है?"

"हां! उसमें बात ही कौन सी है।"

"तो लगा तो दे बेटा झट-पट, शाबास! लेकिन ऊंँचा बहुत है।"

"बिजली वाले की सीढ़ी तो रक्खी है।"