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समाप्त कर दूंँ।" कह कर मूर्ति ने अपना त्रिशूल उठाकर चाचा की ओर ताना।

चाचा कुछ बोले नहीं। हाथ जोड़े हुए औंधे मुँह गिरे और बेहोश हो गये। मूर्ति जिस ओर से आयी थी उसी ओर वापस जाकर अन्धकार में विलीन हो गई। जब चाचा को देर हुई तो उनका शिष्य उन्हें ढूँढ़ने आया। उन्हें बेहोश पड़ा देखकर उसे भी भय लगा, परन्तु उसने शीघ्रता पूर्वक चाचा के मुख तथा सिर पर गंगाजल डाला। कुछ क्षण पश्चात चाचा को होश आया। होश आते ही बोले---'प्रभो, दास का अपराध क्षमा कीजिये!"

शिष्य बोला---"यह आप किससे कह रहे हैं।"

चाचा ने शिष्य की आवाज सुनकर उसे ध्यान-पूर्वक देखा---जान में जान पायी। उठकर बैठ गये। शिष्य से बोले---"जल्दी चलो यहाँ से, आज पूजन में कुछ गड़बड़ी हुई थी! भगवान भैरव स्वयम् आये थे।"

घर आकर चाचा को बुखार आगया! भैंस का उच्चाटन कराने वाला व्यक्ति तथा मुहल्ले के दो अन्य लड़के चाचा को देखने आये। उस व्यक्ति ने पूछा---"चाचा बुखार कैसे आ गया?"

"क्या बताऊँ, तुम्हारा कार्य करने गया था---एक शिष्य साथ था। उसने पूजन में कुछ त्रुटि कर दी---इससे भगवान भैरव रुष्ट हो गये।"

"और इसलिए आपको बुखार आ गया।"

"अरे वह तो हमीं थे जो जीवित लौट आये। दूसरा होता तो या तो पागल हो जाता या मर जाता। परन्तु मैं तो साधारण तांत्रिक नहीं हूँ! भगवान भैरव सामने आये। कुछ सवाल-जवाब हुए! अन्त को कुछ और तो कर न सके---दण्ड में बुखार दे गये।"

"तो आपने भैरव के दर्शन किये।"

"बिलकुल साक्षात-जैसे हम-तुम बैठे।"

"बड़े भाग्यवान हैं आप।"