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रंगभूमि


निस्संकोच भाव से कह दो। अपनी इच्छा के अनुसार भोजन बनवा लो। जब सैर करने को जी चाहे, गाड़ी तैयार करा लो। किसी नौकर को कहीं भेजना चाहो, भेज दो; मुझसे कुछ पूछने की जरूरत नहीं। मुझमे कुछ कहना हो, तुरंत चली आओ; पहले से सूचना देने का काम नहीं! यह कमरा अगर पसंद न हो, ता मेरे बगलवाले कमरे में चलो, जिसमें इन्दु रहती थी। वहाँ जब मेरा जो चाहेगा, तुमसे बातें कर लिया करूँगी। जय अवकाश हो, मुझे इधर-उधर के समाचार सुना देना। बस, यह समझो कि तुम मेरी प्राइवेट सेक्रटरी हो।"

यह कहकर जाह्नवी चली गई। सोफो का हृदय हलका हो गया। उसे बड़ी चिंता हो रही थी कि इंदु के चले जाने पर यहाँ मैं कैसे रहूँगी, कौन मेरी बात पूछेगा, बिन-बुलाये मेहमान की भाँति पड़ी रहुँगी। यह चिंता शांत हो गई।

उस दिन से उसका और भी आदर-सत्कार होने लगा। लौडियाँ उसका मुँह जोहतो रहतीं, बार-बार आकर पूछ जाती-"मिस साहब, कोई काम तो नहीं है?” कोचवान दोनों जून पूछ जाता-"हुक्म हो, तो गाड़ी तैयार करूँ।” रानीजी भी दिन में एक बार जरूर आ बैठती। सोफो को अब मालूम हुआ कि उनका हृदय स्त्री-जाति के प्रति सदिच्छाओं से कितना परिपूर्ण था। उन्हें भारत की देवियों को ईंट और पत्थर के सामने सिर झुकाते देखकर हार्दिक वेदना होती थी। वह उनके जड़वाद को, उनके मिथ्यावाद को, उनके स्वार्थवाद को भारत की अधोगति का मुख्य कारण समझतो थीं। इन विषयों पर सोफी से घंटों बातें किया करतीं।

इस कृपा और स्नेह ने धोरे-धीरे सोफो के दिल से बिरानेमन के भावों को मिटाना शुरू किया। उसके आचार-विचार में परिवर्तन होने लगा। लौंडियों से कुछ कहते हुए अब झेंप न होतो, भवन के किसी भाग में जाते हुए अब संकोच न होता; किंतु चिंताएँ ज्यों ज्यों घटती थीं, विलास-प्रियता बढ़ती थी। उसके अवकाश की मात्रा में वृद्धि होने लगी। विनोद से रुचि होने लगी। कभी-कभी प्राचीन कवियों के चित्रों को देखती, कभी बाग की सैर करने चली जाती, कभी प्यानो पर जा बैठती; यहाँ तक कि कभी-कभी जाह्नवी के साथ शतरंज भी खेलने लगो। वस्त्राभूषण से अब वह उदासीनता न रहो। गाउन के बदले रेशमी साड़ियाँ पहनने लगी। रानीजी के आग्रह से कभी-कभी पान भी खा लेती। कंघी-चोटी से प्रेम हुआ। चिंता त्यागमूलक होती है। निश्चितता का आमोद-विनोद से मेल है।

एक दिन, तीसरे पहर, वह अपने कमरे में बैठी हुई कुछ पढ़ रही थी। गरमी इतनी सख्त थी कि बिजली के पंखे और खस की टट्टियों के होते हुए भी शरीर से पसीना निकल रहा था। बाहर लू से देह झुलसी जाती थी। सहसा प्रभु सेवक आकर बोले—"सोफी, जरा चलकर एक झगड़े का निर्णय कर दो। मैंने एक कविता लिखी है, विनय सिंह को उसके विषय में कई शंकाए हैं। मैं कुछ कहता हूँ, वह कुछ कहते हैं; फैसला तुम्हारे ऊपर छोड़ा गया है। जरा चलो।"