नायकराम-"परमावतार, सूरदास की बात मेरे मन में भी बैठती है। थोड़े दिनों में मंदिर, धरमशाला, कुआँ, सब साहय का हो जायगा, इसमें संदेह नहीं।"
राजा साहब-"अच्छा, यह भी माना; लेकिन जरा यह भी तो सोचो कि इस कारखाने से लोगों को क्या फायदा होगा। हजारों मजदूर, मिस्त्री, बाबू, मुंशी, लुहार, बढ़ई आकर आबाद हो जायँगे, एक अच्छी बत्तो हो जायगी, बनियों की नई-नई दूकानें खुल जायँगी, आस-पास के किसानों को अपनी शाक-भाजी लेकर शहर न जाना पड़ेगा, यहीं खरे दाम मिल जायँगे। कुजड़े, स्खटिक, ग्वाले, धोबी, दरजी, सभी को लाभ होगा। क्या तुम इस पुण्य के भागी न बनोगे?"
नायकराम-"अब बोलो सूरे, अब तो कुछ नहीं कहना है? हमारे सरकार की भलमंसी है कि तुमसे इतनी दलील कर रहे हैं। दूसरा हाकिम होता, तो एक हुकुमनाम में सारी जमीन तुम्हारे हाथ से निकल जाती।
सूरदास-"भैया, इसीलिए न लोग चाहते हैं कि हाकिम धरमात्मा हो, नहीं तो क्या देखते नहीं हैं कि हाकिम लोग बिना डाम-फूल-सुअर के बात नहीं करते। उनके सामने खड़े होने का तो हियाव ही नहीं होता, पातें कौन करता। इसीलिए तो मनाते हैं कि हमारे राजों-महाराजों का राज होता, जो हमारा दुख-दर्द सुनते। सरकार बहुत ठीक कहते हैं, मुहल्ले की रौनक जरूर बढ़ जायगी, रोजगारी लोगों को फायदा भी खूब होगा। लेकिन जहाँ यह रौनक बढ़ेगी, वहाँ ताड़ो-शराब का भी तो परचार बढ़ जायगा, कसवियाँ भो तो आकर बस जायँगी, परदेसी आदमी हमारी बहू-बेटियों को घूरेंगे, कितना अधरम होगा! दिहात के किसान अपना काम छोड़कर मजूरी के लालच से दोड़ेंगे, यहाँ बुरी-बुरी बातें सीखेंगे, और अपने बुरे आचरन अपने गाँव में फैलायेंगे। दिहातों की लड़कियाँ, बहुएँ मजूरी करने आयेंगी, और यहाँ पैसे के लोभ में अपना धरम बिगाडगी। यही रौनक शहरों में है। वही रौनक यहाँ हो जायगी। भगवान न करें, यहाँ वह रौनक हो। सरकार, मुझे इस कुकरम और अधरम ने बचाये। यह सारा पाप मेरे सिर पड़ेगा।"
नायकराम-"दीनबंधु, सूरदास बहुत पकी बात कहता है। कलकत्ता, बंबई, अहमदाबाद, कानपुर, आपके अकवाल से सभी जगह घूम आया हूँ, जजमान लोग बुलाते रहते हैं। जहाँ-जहाँ कल-कारखाने है, वहाँ यही हाल देखा है।"
गजा साहब-"क्या ये बुराइयाँ तीर्थ-स्थानों में नहीं हैं?”
सूरदास-“सरकार, उनका सुधार भी तो बड़े आदमियों ही के हाथ में है, जहाँ बुरी बातें पहले ही से हैं, वहाँ से हटाने के बदले उन्हें और फैलाना तो ठीक नहीं है।"
राजा साहब-"ठीक कहते हो सूरदास, बहुत ठोक कहते हो। तुम जीते, मैं हार गया। तुम्हारी बातों से चिच प्रसन्न हो गया। कभी शहर आना, तो मेरे यहाँ अवश्य आना। जिस वक्त मैंने साहब से इस जमीन को तय करा देने का वादा किया था, ये बातें मेरे ज्यान में न आई थीं। अब तुम निश्चिन्त हो जाओ, मैं साहब से कह दूँगा, सूरदास अपनी जमीन नहीं देता। नायकराम, देखो, सूरदास को किसी बात की तकलीफ