बैठे तापते ही रहोगे? साँझ हो गई, हवा खानेवाले अब इस ठंड में न निकलेंगे। खाने-भर को मिल गया कि नहीं?"
सूरदास-“कहाँ महाराज, आज तो एक भागवान् से भी भेंट न हुई।"
नायकराम-"जो भाग्य में था, मिल गया। चलो, घर चलें। बहुत ठंड लगती हो, तो मेरा यह अंगोछा कंधे पर डाल लो। मैं तो इधर आया था कि कहीं साहब मिल जायँ, तो दो-दो बातें कर लूँ। फिर एक बार उनकी और हमारी भी हो जाय।”
सूरदास चलने को उठा ही था कि सहसा एक गाड़ी की आहट मिली। रुक गया। आस बँधी। एक क्षण में फिटन आ पहुँची। सूरदास ने आगे बढ़कर कहा-"दाता, भगवान् तुम्हारा कल्यान कर, अंधे की खबर लीजिए।"
फिटन रुक गई, और चतारी के राजा साहब उतर पड़े। नायकराम उनका पण्डा था। साल में दो-चार सौ रुपये उनकी रियासत से पाता था। उन्हें आशीर्वाद देकर बोला- "सरकार का इधर से कैसे आना हुआ? आज तो बड़ी ठंड है।"
राजा साहब-“यही सूरदास है, जिसकी जमीन आगे पड़ती है? आओ, तुम दोनों आदमी मेरे साथ बैठ जाओ, मैं जरा उस जमीन को देखना चाहता हूँ।"
नायकराम-“सरकार चलें, हम दोनों पीछे-पीछे आते हैं।"
राजा साहब-"अजी, आकर बैठ जाओ, तुम्हें आने में देर होगी, और मैंने अभी सन्ध्या नहीं की है।"
सूरदास—“पण्डाजी, तुम बैठ जाओ, मैं दौड़ता हुआ चलूँगा, गाड़ी के साथ-ही-साथ पहुँचूँगा।"
राजा साहब-"नहीं-नहीं, तुम्हारे बैठने में कोई हरज नहीं है, तुम इस समय भिखारी सूरदास नहीं, जमींदार सूरदास हो।”
नायकराम-"बैठो सूरे, बैठो। हमारे सरकार साक्षात् देवरूप हैं।"
सूरदास-"पण्डाजी, में........."
राजा साहब-"पण्डाजी, तुम इनका हाथ पकड़कर बिठा दो, यों न बैठेगे।"
नायकराम ने सूरदास को गोद में उठाकर गद्दी पर बैठा दिया, आप भी बैठे, और फिटन चली। सूरदास को अपने जीवन में फिटन पर बैठने का यह पहला ही अवसर था, ऐसा जान पड़ता था कि मैं उड़ा जा रहा हूँ। तीन-चार मिनट में जब गोदाम पर गाड़ी रुक गई, और राजा साहब उतर पड़े, तो सूरदास को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्द क्योंकर आ गये।
राजा साहब—"जमीन तो बड़े मौके की है।"
सूरदास—"सरकार, बाप-दादों की निसानी है।"
सूरदास के मन में भाँति-भाँति की शंकाएँ उठ रही थीं-क्या साहब ने इनको यह जमीन देखने के लिए भेजा है? सुना है, यह बड़े धर्मात्मा पुरुष हैं, तो इन्होंने साहब को समझा क्यों न दिया? बड़े आदमी सब एक होते हैं, चाहे हिन्दू हों या तुर्क; तभी