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धर्म-भीरुता में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ एक अवगुण भी है; वह सरल होती है। पाखंडियों का दाँव उस पर सहज ही में चल जाता है। धर्मभीरु प्राणी तार्किक नहीं होता। उसकी विवेचना-शक्ति शिथिल हो जाती है। ताहिरअली ने जब से अपनी दोनों विमाताओं की बातें सुनी थीं, उनके हृदय में घोर अशांति हो रही थी। बार-बार खुदा से दुआ माँगते थे, नीति-ग्रंथों से अपनी शंका का समाधान करने की चेष्टा करते थे। दिन तो किसी तरह गुजरा, सन्ध्या होते ही वह मि० जान सेवक के पास पहुँचे, और बड़े विनीत शब्दों में बोले—'हुजूर की खिदमत में इस वक्त एक खास अर्ज करने के लिए. हाजिर हुआ हूँ। इर्शाद हो तो कहूँ।”

जॉन सेवक-"हाँ-हाँ, कहिए, कोई नई बात है क्या?"

ताहिर-"हुजूर उस अन्धे की जमीन लेने का खयाल छोड़ दें, तो बहुत ही मुनासिब हो। हजारों दिऋते हैं। अकेला सूरदास ही नहीं, सारा मुहल्ला लड़ने पर तुला हुआ है। खासकर नायकराम पण्डा बहुत बिगड़ा हुआ है। वह बड़ा खौफनाक आदमी है। जाने कितनी बार फौजदारियाँ कर चुका है। अगर ये सब दिक्कतें किसी तरह दूर भी हो जायँ, तो भी मैं आपमे यही अर्ज करूँगा कि इसके बजाय किसी दूसरी जमीन की फिक कीजिए।"

जॉन सेवक-'यह क्यों?”

ताहिर-“हुजूर, यह सब अजाब का काम है। सैकड़ों आदमियों का काम उस जमीन से निकलता है, सबकी गायें वहीं चरती हैं, बरातें ठहरती हैं, प्लेग के दिनों में लोग वहीं झोंपड़े डालते हैं। वह जमीन निकल गई, तो सारी आबादी को तकलीफ होगी, और लोग दिल में हमें सैकड़ों बददुआएँ देंगे। इसका अजाब जरूर पड़ेगा।”

जॉन सेवक-(हँसकर) "अजाब तो मेरी गरदन पर पड़ेगा न? मैं उसका बोझ उठा सकता हूँ।"

ताहिर-"हुजूर, मैं भी तो आप ही के दामन से लगा हुआ हूँ। मैं उस अजाब से कब बच सकता हूँ। बल्कि मुहल्लेवाले मुझी को बागी समझते हैं। हुजूर तो यहाँ तशरीफ रखते हैं, मैं तो आठों पहर उनकी आँखों के सामने रहूँगा, नित्य उनकी नजरों में खटकता रहूँगा, औरतें भी राह चलते दो गालियाँ सुना दिया करेंगी। बाल-बच्चों-वाला आदमी हूँ; खुदा जाने क्या पड़े, क्या न पड़े। आखिर शहर के करीब और जमीनें भी तो मिल सकती हैं।”

धर्म-भीरता जड़वादियों की दृष्टि में हास्यास्पद बन जाती है। विशेषतः एक जवान आदमी में तो यह अक्षम्य समझी जाती है। जॉन सेवक ने कृत्रिम क्रोध धारण करके