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रंगभूमि


मिले, मानों में उनका पुराना दोस्त हूँ। यह असाध्य कार्य था, और इस सफलता के लिए मैं सोफी का आभारी हूँ।"

मिसेज सेवक-(क्रुद्ध होकर) "तो तुम जाकर उसे लिया लाओ, मैंने तो मना नहीं किया है। मुझे ऐसी बातें क्यों बार-बार सुनाते हो? मैं तो अगर प्यासों मरती भी रहूँगी, तो उससे पानी न माँगूँगी। मुझे लल्लो-चप्पो नहीं आती। जो मन में है, वहीं मुख में है। अगर वह खुदा से मुँह फेरकर अपनी टेक पर दृढ़ रह सकती है, तो मैं अपने ईमान पर दृढ़ रहते हुए क्यों उसकी खुशामद करूँ?"

प्रभु सेवक नित्य एक बार सोफिया से मिलने जाया करता था। कुँवर साहब और विनय, दोनों ही की विनयशीलता और शालीनता ने उसे मंत्र-मुग्ध कर दिया था। कुँवर साहब गुणज्ञ थे। उन्होंने पहले ही दिन, एक ही निगाह में, ताड़ लिया कि यह साधारण बुद्धि का युवक नहीं है। उन पर शीघ्र ही प्रकट हो गया कि इसकी स्वाभाविक रूचि साहित्य और दर्शन की ओर है। वाणिज्य और व्यापार से इसे उतनी ही भक्ति है, जितनी विनय को जमींदारी से। इसलिए वह प्रभु सेवक से प्रायः साहित्य ओर काव्य आदि विषयों पर वार्तालाप किया करते थे। वह उसकी प्रवृत्तियों को राष्ट्रीयता के भावों से अलंकृत कर देना चाहते थे। प्रभु सेवक को भी ज्ञात हो गया कि यह महाशय काव्य-कला के मर्मज्ञ हैं। इनसे उसे वह स्नेह हो गया था, जो कवियों को रसिक जनों से हुआ करता है। उसने इन्हें अपनी कई काव्य-रचनाएँ सुनाई थीं, और इनको उदार अभ्यर्थ-नाओं से उस पर एक नशा-सा छाया रहता था। वह हर वक्त रचना-विचार में निमग्न रहता। वह शंका और नैराश्य, जो प्रायः नवीन साहित्य सेवियों को अपनी रचनाओं के प्रचार और सम्मान के विषय में हुआ करता है, कुँवर साहब के प्रोत्साहन के कारण विश्वास और उत्साह के रूप में परिवर्तित हो गया था। वहीं प्रभु सेवक, जो पहले हफ्तों कम न उठाता था, अब एक-एक दिन में कई कविताएँ रच डालता। उसके भावोद्गारों में सरिता के-मे प्रवाह और वाहुल्य का आविर्भाव हो गया था। इस समय वह बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। जॉन सेवक को आते देखकर वहाँ आया कि देखूँ , क्या खबर लाये हैं। जमीन के मिलने में जो कठिनाइयाँ उपस्थित हो गई थीं, उनगे उभे आगा हो गई थी कि कदाचित् कुछ दिनों तक इस बंधन में न फंसना पड़े। जन सेवक की सफलता ने बद आशा भंग कर दी। मन की इस दशा में माता के अंतिम शब्द उसे बहुत अप्रिय मालूम हुए। बोला-"मामा,अगर आपका विचार है कि सोफी वही निरा- दर और अपमान सह रही है, और उकताकर स्वयं चली आवेगी, तो आप बड़ी भूल कर रही हैं। सोफी अगर वहाँ बरसों रहे, तो भी वे लोग उसका गला न छोड़ेंगे। मैंने इतने उदार और शीलवान् प्राणी ही नहीं देखे। हाँ, सोफी का आत्माभिमान इसे स्वीकार न करेगा कि वह चिरकाल तक उनके आतिय ओर सज्जनता का उपभोग करे। इन दो सप्ताहों में वह जितनी क्षीण हो गई है, उतनी महीनों बीमार रहकर भी न हो सकती थी। उसे संसार के सब सुख प्राप्त है; किंतु जैसे कोई शीत-प्रधान देश का पौदा उण देश में