मिस्टर सेवक-"महाशय, इन लोगों के दिमाग की कुछ न पूछिए। संसार इनके उपभोग के लिए है। और किसी को इसमें जीवित रहने का भी अधिकार नहीं है। जो माणी इनके द्वार पर अपना मस्तक न घिसे, वह अपवादी है, अशिष्ट है, राजद्रोही है; और जिस प्राणी में राष्ट्रीयता का लेश-मात्र भी आमास हो-विशेषतः वह, जो यहाँ कला-कोशल और व्यवसाय को पुनर्जीवित करना चाहता हो, दंडनीय है। राष्ट्र सेवा इनकी दृष्टि में सबसे अधम पाप है। आपने मेरे सिगरेट के कारखाने की नियमावली तो देखी होगी?”
महेंद्र०-"जी हाँ, देखी थी।"
जॉन सेवक-"नियमावली का निकलना कहिए कि एक सिरे से अधिकारिवर्ग की निगाहें मुझसे फिर गई। मैं उनका कृपा-भाजन था, कितने ही अधिकारियों से मेरी मैत्री थी। किन्तु उसी दिन से मैं उनकी बिरादरी से टाट-बाहर कर दिया गया, मेरा हुक्का-पानी बंद हो गया। उनकी देखा-देखी हिन्दुस्थानी हुकाम और रईसों ने भी आनाकानी शुरू की। अब मैं उन लोगों की दृष्टि में शैतान से भी ज्यादा भयंकर हूँ।"
इतनी लंबी भूमिका के बाद जॉन सेवक अपने मतलब पर आये। बहुत सकुचाते हुए अपना उद्देश्य प्रकट किया। राजा साहब मानव-चरित्र के ज्ञाता थे, बने हुए तिलक-धारियों को खूब पहचानते थे। उन्हें मुगालता देना आसान न था। किंतु समस्या ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें अपनो धर्म-रक्षा के हेतु अविचार की शरण लेनी पड़ी। किसी दूसरे अवसर पर वह इस प्रस्ताव की ओर आँख उठाकर भी न देखते। एक दीन-दुर्बल अंधे की भूमि को, जो उसके जीवन का एकमात्र आधार हो, उसके कब्जे से निकालकर एक व्यवसायी को दे देना उनके सिद्धांत के विरुद्ध था। पर आज पहली बार उन्हें अपने नियम को ताक पर रखना पड़ा। यह जानते हुए कि मिस सोफिया ने उनके एक निकटतम संबंधी की प्राण-रक्षा की है, यह जानते हुए कि जॉन सेवक के साथ सद्व्यवहार करना कुँवर भरतसिंह को एक भारी ऋण से मुक्त कर देगा, वह इस प्रस्ताव की अवहेलना न कर सकते थे। कृतज्ञता हमसे बह सब कुछ करा लेती है, जो नियम की दृष्टि में त्याज्य है। यह वह चक्की है, जो हमारे सिद्धांतों और नियमों को पीस डालती है। आदमी जितना ही निःस्पृह होता है, उपकार का बोझ उसे उतना ही असह्य होता है। राजा साहब ने इस मामले को जॉन सेवक के इच्छानुसार तय कर देने का वचन दिया, और मिस्टर सेवक अपनी सफलता पर फूले हुए घर आये।
स्त्री ने पूछा-"क्या तय कर आये?"
जॉन सेवक-"वही, जो तय करने गया था।"
स्त्री-"शुक्र है, मुझे आशा न थी।"
जॉन सेवक-"यह सब सोफी के एहसान की बरकत है। नहीं तो यह महाशय सीधे मुँह बात करनेवाले न थे। यह उसी के आत्मसमर्पण की शक्ति है, जिसने महेंद्र-कुमारसिंह-जैसे अभिमानी और बेमुरौबत आदमी को नीचा दिखा दिया। ऐसे तपाक से