ताहिरअली खाना खाकर लेटे थे कि जैनब ने जाकर कहा-"साहब दूसरों की जमीन क्यों लिये लेते हैं? बेचारे रोते फिरते हैं।”
ताहिर-"मुफ्त थोड़े ही लेना चाहते हैं। उसका माकूल मुआवजा देने पर तैयार हैं।"
जैनब-'यह तो गरीबों पर जुल्म है।"
रकिया—“जुल्म ही नहीं है, अजाब है। भैया, तुम साहब से साफ-साफ कह दो, सुझे इस अजाब में न डालिए। खुदा ने मेरे आगे भी बाल-बच्चे दिये हैं; न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े; मैं यह अजाब सिर पर न लूँगा।"
जैनब - "गगार तो हैं ही, तुम्हारे ही सिर हो जायें। तुम्हें साफ कह देना चाहिए कि मैं मुहल्ले बालों से दुश्मनी मोल न लूँगा, जान-जोखिम की बात है।"
रकिया-"जान-जोखिम तो है ही, ये गवार किसी के नहीं होते।"
ताहिर--"क्या आपने भी कुछ अफवाह सुनी है?”
रकिया—'हाँ, ये सब चमार आपस में बातें करते जा रहे थे कि साहब ने जमीन ली, तो खून की नदी बह जायगी। मैंने तो जब से सुना है, होश उड़े हुर है।"
जैनब--"होश उड़ने की बात ही है।”
ताहिर--"मुझे सब नाहक बदनाम कर रहे हैं। मैं लेने में न देने में! साहब ने उस अंधे से जमीन की निस्बत बातचीत करने का हुक्म दिया था। मैंने हुक्म की तामील की जो मेरा फर्ज था, लेकिन ये अहमक यही समझ रहे हैं कि मैंने ही साहब को इस जमोन की खरीदारी पर आमादा किया है, हालाँकि खुदा जानता है, मैंने कभी उनसे इसका जिक ही नहीं किया।”
जैनब-"मुझे बदनामी का खौफ तो नहीं है; हाँ, खुदा के कहर से डरती हूँ। बेकसों की आह क्यों सिर पर लो।"
ताहिर--मेरे ऊपर क्या अजाय पड़ने लगा?"
जैनब-"और किसके ऊपर पड़ेगा बेटा? यहाँ तो तुम्ही हो, साहब तो नहीं बैठे हैं। वह तो भुस में आग लगाकर दूर से तमाशा देखेंगे, आई-गई तो तुम्हारे सिर जायगी। इस पर कब्जा तुम्हें करना पड़ेगा। मुकदमे चलेंगे, तो पैरवी तुम्हें करनी पड़ेगी। ना भैया, मैं इस आग में नहीं कुदना चाहती।”
रकिया--"मेरे मैके में एक कारिन्दे ने किसी काश्तकार की जमीन निकाल ली थी। दूसरे ही दिन जवान बेटा उठ गया। किया उसने जमींदार ही के हुक्म से, मगर बला आई उस गरीब के सिर। दौलतबालों पर अजाब भी नहीं पड़ता। उसका वार भी गरीबों ही पर पड़ता है। हमारे बच्चे रोज ही नजर और आसेब की चपेट में आते रहते हैं; पर आज तक कभी नहीं सुना कि किसी अँगरेज के बच्चे को नजर लगी हो। उन पर बलैयात का असर ही नहीं होता।”
यह पते की बात थी। ताहिरअली को भी इसका तजुर्बा था। उनके घर के सभी