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रंगभूमि


विनय मूर्तिमान् हो गये हों। सिर से पाँव तक चेतना ही चेतना थी, जड़ का कहीं आभास तक न था।

सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था। इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मँजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था। मिसेज़ सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा-"इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले। क्या यह दौड़ता ही चला जायगा?"

मि० जॉन सेवक बोले-"इस देश के सिर से यह बला न जाने कब टलेगी। जिस देश में भीख माँगना लजा की बात न हो, यहाँ तक कि सर्वश्रेष्ठ जातियाँ भी जिसे अपनी जीवन-वृत्ति बना लें, जहाँ महात्माओं का एकमात्र यही आधार हो, उसके उद्धार में अभी शताब्दियों की देर है।”

प्रभु सेवक-"यहाँ यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वैदिक काल में राजों के लड़के भी गुरुकुलों में विद्या-लाभ करते समय भीख माँगकर अपना और अपने गुरु का पालन करते थे। ज्ञानियों और ऋषियों के लिए भी यह कोई अपमान की बात न थी। किंतु वे लोग माया-मोह से मुक्त रहकर ज्ञान-प्राप्ति के लिए दया का आश्रय लेते थे। उस प्रथा का अब अनुचित व्यवहार किया जा रहा है। मैंने यहाँ तक सुना है कि कितने ही ब्राहणा, जो जमींदार हैं, घर से खाली हाथ मुकद्दमे लड़ने चलते हैं, दिन-भर कन्या के विवाह के बहाने, या किसी संबंधी की मृत्यु का हीला करके, भीख माँगते हैं, शाम को नाज बेचकर पैसे खड़े कर लेते हैं, पैसे जल्द रुपये बन जाते हैं, और अन्त में कचहरी के कर्मचारियों और वकीलों को जेब में चले जाते हैं।”

मिसेज़ सेवक-“साईस, इस अंधे से कह दे, भाग जाय, पैसे नहीं हैं।"

सोफिया-"नहीं मामा, पैसे हों, तो दे दीजिए। बेचारा आधे मील से दौड़ा आ रहा है, निराश हो जायगा। उसकी आत्मा को कितना दुःख होगा।"

माँ-"तो उससे किसने दौड़ने को कहा था? उसके पैरों में दर्द होता होगा।" सोफिया-"नहीं, अच्छी मामा, कुछ दे दीजिए, बेचारा कितना हाँफ रहा है।"

प्रभु सेक्क ने जेब से केस निकाला; किंतु ताँबे या निकिल का कोई टुकड़ा न निकला, और चाँदी का कोई सिक्का देने में माँ के नाराज़ होने का भय था। बहन से बोले-"सोफी, खेद है, पैसे नहीं निकले। साईस, अंधे से कह दो, धीरे-धीरे गोदाम तक चला आये; वहाँ शायद पैसे मिल जायँ।”

किन्तु सूरदास को इतना संतोष कहाँ? जानता था, गोदाम पर कोई मेरे लिए खड़ा न रहेगा; कहीं गाड़ी आगे बढ़ गई, तो इतनी मिहनत बेकार हो जायगी। गाड़ी का पीछान छोड़ा, पूरे एक मील तक दौड़ता चला गया। यहाँ तक कि गोदाम आ गया, और फिटन रुकी। सब लोग उतर पड़े। सूरदास भी एक किनारे खड़ा हो गया, जैसे वृक्षों के बीच में हूँठ खड़ा हो। हाँफते-हाँफते बेदम हो रहा था।

मि० जॉन सेवक ने यहाँ चमड़े की आढ़त खोल रखी थी। ताहिरअली नाम का