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रंगभूमि


है! मैं सबल होता, तो मेरा क्रोध देखकर ये लोग थर-थर काँपने लगते। नहीं तो खड़े-खड़े हँस रहे हैं, समझते हैं कि हमारा कर ही क्या सकता है। भगवान् ने इतना अपंग न बना दिया होता, तो क्यों यह दुर्गत होती। यह सोचकर हठात् उसे रोना आ गया। बहुत जन्त करने पर भी आँसू रुक सके।

बजरंगी ने भैरो और जगधर दोनों को धिक्कारा-"क्या अंधे से हेकड़ी जताते हो! सरम नहीं आती? एक तो लड़के का तमाचों से मुँह लाल कर दिया, उस पर और गरजते हो। वह भी तो लड़का ही है, गरीब का है, तो क्या? जितना लाड़-प्यार उसका होता है, उतना भले घरों के लड़कों का भी नहीं होता। जैसे और सब लड़के चिढ़ाते हैं, वह भी चिढ़ाता है। इसमें इतना बिगड़ने की क्या बात है। (जमुनी की ओर देखकर) यह सब तेरे कारण हुआ। अपने लौंडे को डाँटती नहीं, बेचारे अंधे पर गुस्सा उतारने चली है।"

जमुनी सूरदास का रोना देखकर सहम जानती थी, दीन की हाय कितनी मोटी होती है। लजित होकर बोली-"मैं क्या जानती थी कि जरा-सी बात का इतना बखेड़ा हो जायगा। आ बेटा मिट्ठू, चल, बछवा पकड़ ले, तो दूध दुहूँ।”

दुलारे लड़के तिनके की मार भी नहीं सह सकते। मिट्ठू दूध की पुचकार से भी शांत न हुआ, तो जमुनी ने आकर उसके आँसू पोंछे, और गोद में उठाकर घर ले गई। उसे क्रोध जल्द आता था; पर जल्द ही पिघल भी जाती थी।

मिट्ठू तो उधर गया, भैरो और जगधर भी अपनी-अपनी राह चले; पर सूरदास सड़क की ओर न गया। अपनी झोपड़ी में जाकर अपनी बेकसी पर रोने लगा। अपने अंधेपन पर आज उसे जितना दुःख हो रहा था, उतना और कभी न हुआ था। सोचा, मेरी यह दुर्गत इसीलिए न है कि अंधा हूँ, भीख माँगता हूँ। मसक्कत की कमाई खाता होता, तो मैं भी गरदन उठाकर न चलता, मेरा भी आदर-मान होता; क्यों चिउँटी की भाँति पैरों के नीचे मसला जाता। आज भगवान् ने अपंग न बना दिया होता, तो क्या दोनों आदमी लड़के को मारकर हँसते हुए चले जाते, एक-एक की गरदन मरोड़ देता। बजरंगी से क्यों नहीं कोई बोलता। घिसुआ ने भैरो की ताड़ी का मटका फोड़ दिया था, कई रुपये का नुकसान हुआ लेकिन भैरों ने चूँ तक न की। जगधर को उसके मारे घर से निकलना मुश्किल है। अभी दस-ही-पाँच दिनों की बात है, उसका खोंचा उलट दिया था। जगधर ने जूं तक न की। जानते हैं न कि जरा भी गरम हुए कि बजरंगी ने गरदन पकड़ी। न जाने उस जनम में ऐसे कौन-से अपराध किये थे, जिसकी यह सजा मिल रही है। लेकिन भीख न माँगूँ, तो खाऊँ क्या? और फिर जिंदगी पेट ही पालने के लिए थोड़े ही है। कुछ आगे के लिए भी तो करना है। नहीं, इस जनम में तो अंधा हूँ ही, उस जनम में इससे भी बड़ी दुर्दशा होगी। पितरों का रिन सिर सवार है, गयाजी में उनका सराध न किया, तो वे भी क्या समझेंगे कि मेरे बंस में कोई है। मेरे साथ तो कुल का अंत ही है। मैं यह रिन न चुकाऊँगा, तो और कौन