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रंगभूमि


एक-न-एक दिन हम लोग आपको अवश्य खींच लेंगे। जिनमें आत्मसम्मान का भाव जीवित है, उनके लिए वहाँ स्थान नहीं है। वहाँ उन्हीं के लिए स्थान है, जो या तो स्वार्थभक्त हैं, अथवा अपने को धोखा देने में निपुण । अभी यहाँ दो-एक दिन विश्राम कीजिएगा न ? मैं तो आज की गाड़ी से पंजाब जा रही हूँ।"

गंगुली-"विश्राम करने का समय तो अब निकट आ गया है, उसका क्या जल्दी है। अब अनंत विश्राम करेगा । हम भी आपके साथ चलेगा।"

जाह्नवी-"क्या कहें, बेचारी सोफिया न हुई, नहीं तो उससे बड़ी सहायता मिलती।"

गंगुली-"हमको तो उसका समाचार वहीं मिला था। उसका जीवन अब कष्टमय होता। उसका अंत हो गया, बहुत अच्छा हुआ। प्रणय-वंचित होकर वह कभी सुखी नहीं रह सकता था। कुछ भी हो, वह सती था; और सती नारियों का यही धर्म है। रानी इंदु तो आराम से है न !"

जाह्नवी-"वह तो महेंद्रकुमार से पहले ही रूठकर चली आई थी । अब यहीं रहती है। वह भी तो मेरे साथ जा रही है। उसने अपनी रियासत के सुप्रबंध के लिए एक ट्रस्ट बनाना निश्चय किया है, जिसके प्रधान आप होंगे। उसे रियासत से कोई संपर्क न रहेगा।"

इतने में इंदु आ गई और डॉक्टर गंगुली को देखते ही उन्हें प्रणाम करके बोली-"आप स्वयं आ गये, मेरा तो विचार था कि पंजाब होते हुए आपको सेवा में भी जाऊँ ।”

डॉक्टर गंगुली ने कुछ भोजन किया और संध्या-समय तीनों आदमी यहाँ से रवाना हो गये। तीनों के हृदय में एक ही ज्वाला थी, एक ही लगन । तीनों का ईश्वर पर पूर्ण विश्वास था।

कुँवर भरतसिंह अब फिर विलासमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं, फिर वही सैर और शिकार है, वही अमीरों के चोचले, वही रईसों के आडंबर, वही ठाट-बाट । उनके धार्मिक विश्वास की जड़ें उखड़ गई हैं। इस जीवन से परे अब उनके लिए अनंत शून्य और अनंत आकाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। लोक असार है, परलोक भी असार है, जब तक जिंदगी है, हँस-खेलकर काट दो। मरने के पीछे क्या होगा, कौन जानता है । संसार सदा इसी भांति रहा है और इसी भाँति रहेगा। उसकी सुव्यवस्था न किसी से हुई है और न होगी। बड़े-बड़े ज्ञानी, बड़े-बड़े तत्त्ववेत्ता ऋषिमुनि मर गये, और कोई इस रहस्य का पार न पा सका। हम जीवमात्र हैं और हमारा काम केवल जीना है। देश-भक्ति, विश्व-भक्ति, सेवा, परोपकार, यह सब ढकोसला है। अब उनके नैराश्यव्यथित हृदय को इन्हीं विचारों से शांति मिलती है ।