वह और न बोलने पाये। पुलिस का एक सार्जेंट उन्हें सभा-भवन से निकाल ले गया। अन्य सभासद भी उठकर सभा-भवन से चले गये। पहले तो लोगों को भय था कि गवर्नमेंट डॉक्टर गंगुली पर अभियोग चलायेगी, पर कदाचित् व्यवस्थाकारों को उनकी वृद्धावस्था पर दया आ गई, विशेष इसलिए कि डॉक्टर महोदय ने उसी दिन घर आते ही अपना त्याग-पत्र भेज दिया।
वह उसी दिन वहाँ से रवाना हो गये और तीसरे दिन कुँवर भरतसिंह से आ मिले। कुँवर साहब ने कहा-"तुम तो इतने गुस्सेवर न थे, यह तुम्हें हो क्या गया ?"
गंगुली-"हो क्या गया! वही हो गया, जो आज से चालीस वर्ष पहले होना चाहिए था। अब हम भी आपका साथी हो गया। अब हम दोनों सेवक-दल का काम खूब उत्साह से करेगा।"
कुँवर-"नहीं डॉक्टर साहब, मुझे खेद है कि मैं आपका साथ न दे सकूँगा। मुझमें वह उत्साह नहीं रहा। विनय के साथ सब चला गया । जाह्नवी अलबत्ता आपकी सहायता करेंगी। अगर अब तक कुछ संदेह था, तो आपके निर्वासन ने उसे दूर कर दिया कि अधिकारि-वर्ग सेवक-दल से सशंक है, और यदि मैं उससे अलग न रहा, तो मुझे अपनी जायदाद से हाथ धोना पड़ेगा। जब यह निश्चय है कि हमारे भाग्य में दासता ही लिखी हुई है......"
गंगुली--"यह आपको कैसे निश्चय हुआ?"
कुँवर-“परिस्थितियों को देखकर, और क्या। जब यह निश्चय है कि हम सदैव गुलाम ही रहेंगे, तो मैं अपनी जायदाद क्यों हाथ से खोऊँ! जायदाद बची रहेगी, तो हम इस हीनावस्था में भी अपने दुखी भाइयों के कुछ काम आ सकेंगे। अगर वह भी निकल गई, तो हमारे दोनों हाथ कट जायँगे । हम रोनेवालों के आँसू भी न पोंछ सकेंगे।"
गंगुली-'आह ! तो कुँवर विनयसिंह का मृत्यु भी आपके इस बेड़ी को नहीं तोड़ सका। हम समझा था, आप निर्द्वेद हो गया होगा। पर देखता है, तो वह बेड़ी ज्यों-का-त्यों आपके पैरों में पड़ा हुआ है। अब आपको विदित हुआ होगा कि हम क्यों संपत्तिशाली पुरुषों पर भरोसा नहीं करता। वे तो अपनी संपत्ति का गुलाम हैं। वे कभी सत्यं के समर में नहीं आ सकते। जो सिपाही सोने का ईट गर्दन में बाँधकर लड़ने चले, वह कभी नहीं लड़ सकता। उसको तो अपने ईंट का चिंता लगा रहेगा। जब तक हम लोग ममता का परित्याग नहीं करेगा, हमारा उद्देश्य कभी पूरा नहीं होगा। अभी तक हमको कुछ भ्रम था, पर वह भी मिट गया कि संपत्तिशाली मनुष्य हमारा मदद करने के बदले उल्टा हमको नुकसान पहुँचायेगा। पहले आप निराशावादी था, अब आप संपत्तिवादी हो गया"
यह कहकर डॉक्टर गंगुली विमन हो यहाँ से उठे और जाह्नवीं के पास आये, तो देखा कि वह कहीं जाने को तैयार बैठी हैं। इन्हें देखते ही विहसित मुख से इनका अभिवादन करते हुए बोलीं-"अब तो आप भी मेरे सहकारी हो गये। मैं जानती थी कि