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रंगभूमि


जाता है। उसी देह से, जिसकी वह सदैव रक्षा करता था, जिसके जरा-जरा-से कष्ट से स्वयं विकल हो जाता था। किसी से कुछ न कहा, न किसी की हिम्मत पड़ी कि उससे कुछ पूछे। उसके चले जाने के बाद महराजिन ने जाकर महेंद्र से कहा-“सरकार, रानी बहू जाने कहाँ चली जा रही हैं!"

महेंद्र ने उसकी ओर तीन नेत्रों से देखकर कहा-"जाने दो।"

महराजिन-"सरकार, संदूक और संदूकचे लिये जाती हैं।"

महेंद्र-"कह दिया, जाने दो।"

महराजिन—“सरकार, रूठी हुई मालूम होती हैं, अभी दूर न गई होंगी, आप मना लें।"

महेंद्र-“मेरा सिर मत खा।"

इंदु लदी-फंदी सेवा-भवन पहुँची, तो जाह्नवी ने कहा-"तुम लड़कर आ रही हो, क्यों?"

इंदु-"कोई अपने घर में नहीं रहने देता, तो क्या जबरदस्ती है।"

जाह्नवी-"सोफिया ने आते-ही-आते मुझसे कहा था, आज कुशल नहीं है।"

इंदु-"मैं लौंडी बनकर नहीं रह सकती।"

जाह्नवी-"तुमने उनसे बिना पूछे चंदा क्यों लिखा?”

इंदु-"मैंने किसी के हाथों अपनी आत्मा नहीं बेची है।"

जाह्नवी-"जो स्त्री अपने पुरुप का अपमान करती है, उसे लोक-परलोक कहीं शांति नहीं मिल सकती!”

इंदु-"क्या आप चाहती हैं कि यहाँ से भी चली जाऊँ! मेरे घाव पर नमक न"छिड़क"

जाह्नवी-'पछताओगी, और क्या। समझाते-समझाते हार गई, पर तुमने अपना हठ न छोड़ा।"

इंदु यहाँ से उठकर सोफिया के कमरे में चली गई। माता की बातें उसे जहर-सी लगी।

यह विवाद दांपत्य क्षेत्र से निकलकर राजनीतिक क्षेत्र में अवतरित हुआ। महेंद्र-कुमार उधर एड़ी-चोटी का जोर लगाकर इस आंदोलन का विरोध कर रहे थे, लोगों को चंदा देने से रोकते थे, प्रांतीय सरकार को उत्तेजित करते थे, इधर इंदु सोफिया के साथ चंदे वसूल करने में तत्पर थी। मि० क्लार्क अभी तक दिल में राजा साहब से द्वेष रखते थे, अपना अपमान भूले न थे, उन्होंने जनता के इस आंदोलन में हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत न समझी, जिसका फल यह हुआ कि राजा साहब की एक न चली। धड़ाधड़ चंदे वसूल होने लगे। एक महीने में एक लाख से अधिक वसूल हो गया। किसी पर किसी तरह का दबाव न था, किसी से कोई सिफारिश न करता था। यह दोनों रमणियों के सदुद्योग ही का चमत्कार था, नहीं, शहीदों की वीरता की विभूति