ज्यादा, इसलिए कि मुझे प्रायश्चित्त करना है, जो इस पद से अलग होकर मैं न कर सकूँगा, वह साधन ही मेरे हाथ से निकल जायगा। सूरदास का मैं उतना ही भक्त हूँ, जितना और कोई व्यक्ति हो सकता है। आप लोगों को शायद मालूम नहीं है कि मैंने शफाखाने में जाकर उनसे क्षमा-प्रार्थना की थी, और सच्चे हृदय से खेद प्रकट किया था। सूरदास का ही आदेश था कि मैं अपने पद पर स्थिर रहूँ, नहीं तो मैंने पहले ही पद-त्याग करने का निश्चय कर लिया था। कुँवर विनयसिंह की अकाल मृत्यु का जितना दुःख मुझे है, उतना उनके माता-पिता को छोड़कर किसी को नहीं हो सकता। वह मेरे
भाई थे। उनकी मृत्यु ने मेरे हृदय पर वह घाव कर दिया है, जो जीवन-पर्यंत न भरेगा। इंद्रदत्त से भी मेरी घनिष्ठ मैत्री थी। क्या मैं इतना अधम, इतना कुटिल, इतना नीच, इतना पामर हूँ कि अपने हाथों अपने भाई और अपने मित्र की गरदन पर छुरी चलाता! यह आक्षेप सर्वथा अन्यायपूर्ण है, यह मेरे जले पर नमक छिड़कना है। मैं अपनी आत्मा के सामने, परमात्मा के सामने निर्दोष हूँ। मैं आपको अपनी सेवाओं की याद नहीं दिलाना चाहता, वह स्वयंसिद्ध है, आप लोग जानते हैं, मैंने आपकी सेवा में अपना कितना समय लगाया है, कितना परिश्रम, कितना अनवरत उद्योग किया है! मैं रिआयत नहीं चाहता, केवल न्याय चाहता हूँ।”
वक्तृता बड़ी प्रभावशाली थी, पर जनवादियों को अपने निश्चय से न डिगा सकी। पंद्रह मिनट में बहुमत से प्रस्ताव स्वीकृत हो गया और राजा साहब ने भी तत्क्षण पद-त्याग की सूचना दे दी।
जब वह सभा-भवन से बाहर निकले, तो जनता ने, जिन्हें उनका व्याख्यान सुनने का अवसर न मिला था, उन पर इतनी फब्तियाँ उड़ाई, इतनी तालियाँ बजाई कि बेचारे बड़ी मुश्किल से अपनी मोटर तक पहुँच सके। पुलिस ने चौकसी न की होती, तो अवश्य दंगा हो जाता। राजा साहब ने एक बार पीछे फिरकर समा-भवन को सजल नेत्रों से देखा और चले गये। कीर्ति-लाभ उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था, और उसका यह निराशा-पूर्ण परिणाम हुआ! सारी उम्र की कमाई पर पानी फिर गया, सारा यश, सारा गौरव, सारी कीर्ति जनता के क्रोध-प्रवाह में बह गई!
राजा साहब वहाँ से जले हुए घर आये, तो देखा कि इन्दु और सोफिया दोनों बैठी बातें कर रही हैं। उन्हें देखते ही इंदु बोली-'मिस सोफिया सूरदास की प्रतिमा के लिए चंदा जमा कर रही हैं, आप भी तो उसकी वीरता पर मुग्ध हो गये थे, कितना दीजिएगा?"
सोफी-"इंदुरानी ने १०००) प्रदान किया है, और इसके दुगने से कम देना आपको शोभा न देगा।"
महेंद्रकुमार ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा-"मैं इसका जवाब सोचकर दूंँगा।"
सोफी-"फिर कब आऊँ?"
महेंद्रकुमार ने ऊपरी मन से कहा-'आपके आने की जरूरत नहीं है, मैं स्वयं भेज दूंँगा।"