एक मित्र-“अजी, जाने भी दीजिए, मुझे तो दोवाने से मालूम होते हैं।"
दूसरे मित्र-“दीवाने नहीं, तो और क्या हैं, यह भी कोई समझदारों का काम है भला!"
माहिरअली-"हमेशा से बीवी के गुलाम रहे; जिस तरफ चाहती है, नाक पकड़-कर धुमा देती है। आप लोगों से खानगो दुखड़े क्या रोऊँ, मेरे भाइयों की और माँ की मेरी भावज के हाथों जो दुर्गत हुई है, वह किसी दुश्मन को भी न हो। कभी बिला रोये दाना न नसीब होता था। मेरो अलबत्ता यह जरा खातिर करते थे। आप समझते रहे होंगे कि इसके साथ जरा जाहिरदारी कर दो, बस, जिन्दगी-भर के लिए मेरा गुलाम हो जायगा। ऐसी औरत के साथ निबाह क्योंकर होता। यह हजरत तो जेल में थे, वहाँ उसने हम लोगों को फाके कराने शुरू किये। मैं खाली हाथ, बड़ी मुसीबत में पड़ा। वह तो कहिए, दवा-दविश करने से यह जगह मिल गई, नहीं तो खुदा ही जानता है, हम लोगों की क्या हालत होतो! हम नेहार मुँह दिन-के-दिन बैठे रहते थे, वहाँ मिठाइयाँ मँगा-मँगाकर खाई जाती थीं। मैं हमेशा से इनका अदब करता रहा, यह उसी का इनाम है, जो आपने दिया है। आप लोगों ने देखा, मैंने इतनी जिल्लत गवारा की; पर सिर तक नहीं उठाया, जबान नहीं खोली, नहीं एक धक्का देता, तो बीसों लुढ़कनियाँ खाते। अब भी दावा कर दूँ, तो हजरत बँधे-बँधे फिरें; लेकिन तब दुनिया यहो कहेगी कि बड़े भाई को जलील किया।"
एक मित्र-"जाने भी दो म्याँ, घरों में ऐसे झगड़े होते ही रहते हैं। बेहयाओं की बला दूर, मरदों के लिए शर्म नहीं है। लाओ, ताश उठाओ, अब तक तो एक बाजी हो गई होती।"
माहिरअली-"कसम कलामेशरीफ की, अम्माँजान ने अपने पास के दो हजार रुपये इन लोगों को खिला दिये, नहीं तो २५) में यह बेचारे क्या खाकर सारे कुनबे का खर्च सँभालते।"
एक कांस्टेबिल-"हजूर, घर-गिरस्ती में ऐसा हुआ ही करता है। जाने दीजिए, जो हुआ, सो हुआ, वह बड़े हैं, आप छोटे हैं; दुनिया उन्हीं को थूकेगी, आपकी बड़ाई होगी।"
एक मित्र-"कैसा शेर-सा लपका हुआ आया, और कलमदान से स्याही निकाल-कर मल ही तो दी। मानता हूँ।"
माहिरअली-“हजरत, इस वक्त दिल न जलाइए, कसम ख़ुदा की, बड़ा मलाल है।"
ताहिरअली यहाँ से चले, तो उनकी गति में वह व्यग्रता न थी। दिल में पछता रहे थे कि नाहक अपनी शराफत में बट्टा लगाया। घर आये, तो कुल्सूम ने पूछा-'ये कहाँ गायब हो गये थे? राह देखते-देखते आँखें थक गई बच्चे रोकर सो गये कि अब्बा फिर चले गये।"
ताहिरअली-"जरा माहिरअली से मिलने गया था।"