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रंगभूमि

जॉन सेवक-"तो फिर मैं आपसे यही कहूँगा कि आपसे हिस्से लेने में विलंब न करें। नुदा ने चाहा, तो आपको कभी निराशा न होगी।"

सौ-सौ रुपये के हिस्से थे। कुँवर साहब ने ५०० हिस्से लेने का वादा किया और बोले-"कल पहली किस्त के दस हजार रुपये बैंक द्वारा आपके पास भेज दूँगा।”

जॉन सेवक की ऊँची-से-ऊँची उड़ान भी यहाँ तक न पहुँची थी; पर वह इस सफलता प्रसन्न न हुए। उनको आत्मा अब भी उनका तिरस्कार कर रही थी कि 'तुमने एक सरल-हृदय सजन पुरुष को धोका दिया। तुमने देश की व्यावसायिक उन्नति के लिए नहीं, अपने स्वार्थ के लिए यह प्रयत्न किया है। देश के सेवक बनकर तुम अपनी पाँचों उँगलियाँ घी में रखना चाहते हो। तुम्हारा मनोवांछित उद्दश्य यही है कि नफे का बड़ा भाग किसी-न-किसी हीले से आप हज्म करो। तुमने इस लोकोक्ति को प्रमाणित कर दिया कि 'बनिया मारे जान, चोर मारे अनजान'।”

अगर कुँवर साहब के सहयोग से जनता में कंपनी की साख जम जाने का विश्वास न होता, तो मिस्टर जॉन सेवक साफ कह देते कि कंपनी इतने हिस्से आपको नहीं दे सकती। एक परोपकारी संस्था के धन को किसी संदिग्ध व्यवसाय में लगाकर उसके अस्तित्व को खतरे में डालना स्वार्थपरता के लिए भी कड़आ ग्रास था; मगर धन का देवता आत्मा का बलिदान पाये बिना प्रसन्न नहीं होता। हाँ, इतना अवश्य हुआ कि अब तक वह निजी स्वार्थ के लिए यह स्वाँग भर रहे थे, उनकी नीयत साफ नहीं थी, लाभ को भिन्न-भिन्न नामों से अपने ही हाथ में रखना चाहते थे। अब उन्होंने निःस्पृह होकर नेकनीयती का व्यवहार करने का निश्चय किया। बोले-"मैं कंपनी के संस्थापक की हैसियत से इस सहायता के लिए हृदय से आपका अनुगृहीत हूँ। खुदा ने चाहा, तो आपको आज के फैसले पर कभी पछताना न पड़ेगा। अब मैं आपसे एक और प्रार्थना करता हूँ। आपकी कृपा ने मुझे धृष्ट बना दिया है। मैंने कारखाने के लिए जो जमीन पसंद की है, वह पाँडेपुर के आगे पक्की सड़क पर स्थित है। रेल का स्टेशन वहाँ से निकट है, और आस-पास बहुत-से गाँव हैं। रकबा दस बीघे का है। जमीन परतो पड़ी हुई है। हाँ, वरती के जानवर उसमें चरने आया करते हैं। उसका मालिक एक अंधा फकीर है। अगर आप उधर कभी हवा खाने गये होंगे, तो आपने उस अंवे को अवश्य देखा होगा।”

कुँवर साहब—'हाँ-हाँ, अभी तो कल ही गया था, वही अंधा है न, काला काला, दुबला-दुबला, जो सवारियों के पीछे दौड़ा करता है?"

जॉन सेवक—"जी हाँ, वहीं-वही। वह जमीन उसी की है; किन्तु वह उसे किसी दाम पर नहीं छोड़ना चाहता। मैं उसे पाँच हजार तक देता था; पर राजी न हुआ। वह कुछ झकी-सा है। कहता है, मैं वहाँ धर्मशाला, मंदिर और तालाब बनवाऊँगा। दिन-भर भीख माँगकर तो गुजर करता है, उस पर इरादे इतने लंबे हैं। कदाचित् हल्लेवालों के भय से उसे कोई मामला करने का साहस नहीं होता। मैं एक निजी मामले