के लिए, मान के लिए, शुश्रूषा के लिए ललचाता है। जिसे उसने बाल्यावस्था से बेटे की तरह पाला, जिसके लिए उसने न जाने क्या-क्या कष्ट सहे, वह अंत समय आकर उससे अपने हिस्से का दावा कर रहा था! आँखों से आंसू निकल आये। बोला-"बेटा, मेरी भूल थी कि तुमसे किरिया-करम करने को कहा। तुम कुछ मत करना। चाहे मैं पिंडदान और जल के बिना रह जाऊँ, पर यह उससे कहीं अच्छा है कि तुम साहब से अपना मावजा माँगों। मैं नहीं जानता था कि तुम इतना कानून पढ़ गये हो, नहीं तो पैसे-पैसे का हिसाब लिखता जाता।"
मिठुआ-"मैं अपने मावजे का दावा जरूर करूँगा। चाहे साहब दें, चाहे सरकार दे, चाहे काला चोर दे, मुझे तो अपने रुपये से काम है।"
सूरदास-'हाँ, सरकार भले हो दे दे, साहब से कोई मतलब नहीं।"
मिठुआ-"मैं तो साहब से लूँगा, वह चाहे जिससे दिलायें। न दिलायेंगे, तो जो कुछ मुझसे हो सकेगा, करूँगा। साहब कुछ लाट तो हैं नहीं। मेरी जायदाद उन्हें हजम न होने पायेगी। तुमको उसका क्या कलक था। सोचा होगा; कौन मेरे बेटा बैठा हुआ है, चुपके से बैठे रहे। मैं चुपका बैठनेवाला नहीं हूँ।"
सूरदास-"मिठू, क्यों मेरा दिल दुखाते हो? उस जमीन के लिए मैंने कौन-सी बात उठा रखी। घर के लिए तो प्राण तक दे दिये। अब और मेरे किये क्या हो सकता था? लेकिन भला बताओ तो, तुम साहब से कैसे रुपये ले लोगे? अदालत में तो तुम उनसे ले नहीं सकते, रुपयेवाले हैं, और अदालत रुपयेवालों की है। हारेंगे भी, तो तुम्हें बिगाड़ देंगे। फिर तुम्हारी जमीन सरकार ने जापते से ली है; तुम्हारा दावा साहब पर चलेगा कैसे?"
मिठुआ-"यह सब पढ़े बैठा हूँ। लगा दूँगा आग, सारा गोदाम जलकर राख हो जायगा। (धीरे से) बम-गोले बनाना जानता हूँ। एक गोला रख दूंगा, तो पुतलीघर में आग लग जायगी। मेरा कोई क्या कर लेगा!"
सूरदास-"भैरो, सुनते हो इसकी बाते, जरा तुम्हीं समझाओ।"
भैरो-'मैं तो रास्ते-भर समझाता आ रहा हूँ; सुनता ही नहीं।"
सूरदास-"तो फिर मैं साहब से कह दूँगा कि इससे होशियार रहें।"
मिठुआ-"तुमको गऊ मारने की हत्या लगे, अगर तुम साहब या किसी और से इस बात की चरचा तक करो। अगर मैं पकड़ा गया, तो तुम्हीं को उसका पाप लगेगा। जीते-जी मेरा बुरा चेता, मरने के बाद काँटे बोना चाहते हो। तुम्हारा मुँह देखना पाप है।"
यह कह कर मिठुआ क्रोध से भरा हुआ चला गया। भैरो रोकता ही रहा, पर उसने न माना। सूरदास आध घण्टे तक मूर्च्छावस्था में पड़ा रहा। इस आघात का घाव गोली से भी घातक था। मिठुआ की कुटिलता, उसके परिणाम का भय, अपना उत्तरदायित्व, साहब को सचेत कर देने का कर्तव्य, यह पहाड़-सी कसम, निकलने का कहीं रास्ता