भैरो-"भैया, तुम इसकी चिंता मत करो, तुम्हारा किरिया-करम इतनी धूमधाम से होगा कि बिरादरी में कभी किसी का न हुआ होगा।"
सूरदास-"धूमधाम से नाम तो होगा, मगर मुझे पहुँचेगा तो वही, जो मिठुआ देगा।"
मिठुआ-"दादा, मेरी नंगाझोली ले लो, जो मेरे पास घेला भी हो। खाने-भर को तो होता ही नहीं, बचेगा क्या?"
सूरदास-"अरे, तो क्या तुम मेरा किरिया करम भी न करोगे?"
मिठुआ-"कैसे करूँगा दादा, कुछ पल्ले-पास हो, तब न?"
सूरदास-“तो तुमने यह आसरा भो तोड़ दिया। मेरे भाग में तुम्हारी कमाई न जीते जी बदी थी, न मरने के पीछे।"
मिठुआ-"दादा, अब मुँह न खुलवाओ, परदा ढका रहने दो। मुझे चौपट करके मरे जाते हो; उस पर कहते हो, मेरा किरिया-करम कर देना, गया-पराग कर देना। हमारी दस बीघे मौरूसी जमोन थी कि नहीं, उसका मावजा दो पैसा, चार पैसा कुछ तुमको मिला कि नहीं, उसमें से मेरे हाथ क्या लगा? घर में भी मेरा कुछ हिस्सा होता है या नहीं? हाकिमों से बैर न ठानते, तो उस घर के सौ से कम न मिलते। पंडाजी ने कैसे पाँच हजार मार लिये? है उनका घर पाँच हजार का? दरवाजे पर मेरे हाथों के लगाये दो नीम के पेड़ थे। क्या वे पाँच-पाँच रुपये में भी महँगे थे? मुझे तो तुमने मलियामेट कर दिया, कहीं का न रखा। दुनिया भर के लिए अच्छे होगे, मेरो गरदन पर तो तुमने छुरी फेर दी, हलाल कर डाला। मुझे भी तो अभी ब्याह-सगाई करनी है, घर-द्वार बनवाना है। किरिया-करम करने बैतू, तो इसके लिए कहाँ से रुपये लाऊँगा? कमाई में तुम्हारे सक नहीं, मगर कुछ उड़ाया, कुछ जलाया, और अब मुझे बिना छाँह के छोड़े चले जाते हो, बैठने का ठिकाना भी नहीं। अब तक मैं चुप था, नाबालिक था। अब तो मेरे भी हाँथ-पाँव हुए। देखता हूँ, मेरी जमीन का मावजा कैसे नहीं मिलता! साहब लखपती होंगे, अपने घर के होंगे, मेरा हिस्सा कैसे दबा लेंगे? घर में भी मेरा हिस्सा होता है। (झाँककर) मिस साहब फाटक पर खड़ी हैं, घर क्यों नहीं जाती? और सुन ही लेंगी, तो मुझे क्या डर? साहब ने सीधे से दिया, तो दिया; नहीं तो फिर मेरे मन में भी जो आयेगा, करूँगा। एक से दो जानें तो होंगी नहीं; मगर हाँ, उन्हें भी मालूम हो जायगा कि किसी का हक छीन लेना दिल्लगी नहीं है!"
सूरदास भौचक्का-सा रह गया। उसे स्वप्न में भी न सूझा था कि मिठुआ के मुँह से मुझे कभी ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ेंगी। उसे अत्यंत दुःख हुआ, विशेष इसलिए कि ये बातें उस समय कही गई थीं, जब वह शांति और सांत्वना का भूखा था। जब उसे यह आकांक्षा थी कि मेरे आत्मीय जन मेरे पास बैठे हुए मेरे कष्ट-निवारण का उपाय करते होते। यही समय होता है, जब मनुष्य को अपना कीर्ति-गान सुनने की इच्छा होती है, जब उसका जीर्ण हृदय बालकों की भाँति गोद में बैठने के लिए, प्यार