सूरदास-"भगवान की दया है।"
राजा साहब जिन भावों को प्रकट करने यहाँ आये थे, वे सोफी के सामसे उनके मुख से निकलते हुए सकुचा रहे थे। कुछ देर तक वह मौन बैठे रहे, अंत को बोले-"सूरदास, मैं तुमसे अपनी भूलों की क्षमा माँगने आया हूँ। अगर मेरे वश की बात होती, तो मैं आज अपने जीवन को तुम्हारे जीवन से बदल लेता।"
सूरदास-"सरकार, ऐसी बात न कहिए; आप राजा हैं, मैं रंक हूँ। आपने जो कुछ किया, दूसरों की भलाई के बिचार से किया। मैंने जो कुछ किया, अपना धरम समझकर किया। मेरे कारन आपको अपजस हुआ, कितने घर नास हुए, यहाँ तक कि इंद्रदत्त और कुँवर विनयसिंह-जैसे दो रतन जान से गये। पर अपना क्या बस है! हम तो खेल खेलते हैं, जीत-हार भगवान के हाथ है। वह जैसा उचित जानते हैं, करते हैं; बस, नीयत ठीक होनी चाहिए।"
राजा-"सूरदास, नीयत को कौन देखता है। मैंने सदैव प्रजा-हित ही पर निगाह रखी, पर आज सारे नगर में एक भी ऐसा प्राणी नहीं है, जो मुझे खोटा, नीच, स्वार्थी, अधर्मी, पापिष्ठ न समझता हो। और तो क्या, मेरी सहधर्मिणी भी मुझसे घणा कर रही है। ऐसी बातों से मन क्यों न विरक्त हो जाय? क्यों न संसार से घृणा हो जाय? मैं तो अब कहीं मुँह दिखाने-योग्य नहीं रहा।"
सूरदास-"इसकी चिंता न कीजिए। हानि, लाभ, जीवन, मरन, जस, अपजस बिधि के हाथ है, हम तो खाली मैदान में खेलने के लिए बनाये गये हैं। सभी खिलाड़ी मन लगाकर खेलते हैं, सभी चाहते हैं कि हमारी जीत हो, लेकिन जीत एक ही की होती है, तो क्या इससे हारनेवाले हिम्मत हार जाते हैं? वे फिर खेलते हैं; फिर हार जाते हैं, तो फिर खेलते हैं। कभी-न-कभी तो उनकी जीत होती ही है। जो आपको आज बुरा समझ रहे हैं, वे कल आपके सामने सिर झुकायेंगे। हाँ, नीयत ठीक रहनी चाहिए। मुझे क्या उनके घरवाले बुरा न कहते होंगे, जो मेरे कारन जान से गये? इंद्रदत्त और कुँवर विनयसिंह-जैसे दो लाल, जिनके हाथों संसार का कितना उपकार होता, संसार से उठ गये। जस-अपजस भगवान के हाथ है, हमारा यहाँ क्या बस है?"
राजा-"आह सूरदास, तुम्हें नहीं मालूम कि मैं कितनी विपत्ति में पड़ा हुआ हूँ। तुम्हें बुरा कहनेवाले अगर दस-पाँच होंगे, तो तुम्हारा जस गानेवाले असंख्य हैं, यहाँ तक कि हुक्काम भी तुम्हारे दृढ़व्रत और धैर्य का बखान कर रहे हैं। मैं तो दोनों ओर से गया। प्रजा-द्रोही भी ठहरा और राजद्रोही भी। हुक्काम इस सारी दुर्व्यवस्था का अपराध मेरे ही सिर थोप रहे हैं। उनकी समझ में भी मैं अयोग्य, अदूरदर्शी और स्वार्थी हूँ। अब तो यही इच्छा होती है कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं चला जाऊँ।"
सूरदास-"नहीं-नहीं, राजा साहब, निराश होना खिलाड़ियों के धरम के विरुद्ध है। अबकी हार हुई, तो फिर कभी जीत होगी।"