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गंगा से लौटते दिन के नौ बज गये। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सवेरा हो गया था, लौटते हुए जाह्नवी ने कहा-"चलो, जरा सूरदास को देखते चलें, न जाने मरा या बचा, सुनती हूँ, घाव गहरा था।"
सोफिया और जाह्नवी, दोनों शफाखाने गई, तो देखा, सूरदास बरामदे में चारपाई पर लेटा हुआ है, भैरो उसके पैताने खड़ा है और सुभागी सिरहाने बैठी पंखा झल रही है। जाह्नवी ने डॉक्टर से पूछा-"इसकी दशा कैसी है, बचने की कोई आशा है?"
डॉक्टर ने कहा-"किसी दूसरे आदमी को यह जख्म लगा होता, तो अब तक मर चुका होता। इसकी सहन-शक्ति अद्भुत है। दूसरों को नस्तर लगाने के समय क्लोरोफार्म देना पड़ता है, इसके कंधे में दो इंच गहरा और दो इञ्च चौड़ा नश्तर दिया गया, पर इसने क्लोरोफार्म न लिया। गोली निकल आई है, लेकिन बच जाय, तो कहें।"
सोफिया को एक रात की दारुण शोक-वेदना ने इतना धुला दिया था कि पहचानना कठिन था, मानों कोई फूल मुरझा गया हो। गति मंद, मुख उदास, नेत्र बुझे हुए, मानों भूत-जगत् में नहीं, विचार-जगत् में विचर रही है। आँखों को जितना रोना था, रो चुकी थीं, अब रोयाँ-रोयाँ रो रहा था। उसने सूरदास के समीप जाकर कहा- "सूरदास, कैसा जी है? रानी जाह्नवी आई हैं।"
सूरदास-"धन्य भाग। अच्छा हूँ।"
जाह्नवी-"पीड़ा बहुत हो रही है?"
सूरदास-"कुछ कष्ट नहीं है। खेलते-खेलते गिर पड़ा हूँ, चोट आ गई है, अच्छा हो जाऊँगा। उधर क्या हुआ, झोपड़ी बची कि गई?"
सोफी-"अभी तो नहीं गई है, लेकिन शायद अब न रहे। हम तो विनय को गंगा की गोद में सौंपे चले आते हैं।"
सूरदास ने क्षीण स्वर में कहा-"भगवान की मरजी, बीरों का यही धरम है। जो गरीबों के लिए जान लड़ा दे, वही सच्चा बीर है।"
जाह्नवी-"तुम साधु हो। ईश्वर से कहो, विनय का फिर इसी देश में जन्म हो।"
सूरदास-“ऐसा ही होगा माताजी, ऐसा ही होगा। अब महान पुरुष हमारे ही देस में जनम लेंगे। जहाँ अन्याय और अधरम होता है, वहीं देवता लोग जाते हैं। उनके संस्कार उन्हें खींच ले जाते हैं। मेरा मन कह रहा है कि कोई महात्मा थोड़े ही दिनों में इस देस में जनम लेनेवाले हैं......!"
डॉक्टर ने आकर कहा-"रानीजी, मैं बहुत खेद के साथ आपसे प्रार्थना करता हूँ कि सूरदास से बातें न करें, नहीं तो जोर पड़ने से इनकी दशा बिगड़ जायगी। ऐसी