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रंगभूमि


कारणों से इधर आपका साथ न दे सका; लेकिन ईश्वर जानता है, मेरी सहानुभूति आप ही के साथ थी। मैं एक क्षण के लिए आपकी तरफ से गाफिल न था।"

एक आदमी-“यारो, यहाँ खड़े क्या बकवास कर रहे हो? कुछ दम हो, तो चलो, कट मरें।"

दूसरा-"यह व्याख्यान झाड़ने का अवसर नहीं है। आज हमें यह दिखाना है कि हम न्याय के लिए कितनी वीरता से प्राण दे सकते हैं।"

तीसरा-"चलकर गोरखों के सामने खड़े हो जाओ। कोई कदम पीछे न हटावे। वहीं अपनी लाशों का ढेर लगा दो। बाल-बच्चों को ईश्वर पर छोड़ो।"

चौथा-"यह तो नहीं होता कि आगे बढ़कर ललकारें कि कायरों का रक्त भी खौलने लगे। हमें समझाने चले हैं, मानों हम देखते नहीं कि सामने फौज बंदूकें भरे खड़ी है और एक बाढ़ में कलआम कर देगी।"

पाँचवाँ-"भाई, हम गरीबों की जान सस्ती होती है। रईसजादे होते, तो हम भी दूर-दूर से खड़े तमाशा देखते।"

छठा-"इससे कहो, जाकर चुल्लू-भर पानी में डूब मरे। हमें इसके उपदेशों की जरूरत नहीं। उँगली में लहू लगाकर शहीद बनने चले हैं!"

ये अपमान-जनक, व्यंग्य-पूर्ण, कटु वाक्य विनय के उर-स्थल में बाण के सदृश चुभ गये-"हा हतभाग्य! मेरे जीवन-पर्यंत के सेवानुराग, त्याग, संयम का यही फल है! अपना सर्वस्व देश-सेवा की वेदी पर आहुति देकर रोटियों को मोहताज होने का यही पुरस्कार है! क्या रियासत का यही पुरस्कार है! क्या रियासत का कलंक मेरे माथे से कभी न मिटेगा?" वह भूल गये-"मैं यहाँ जनता की रक्षा करने आया हूँ, गोरखे सामने हैं। मैं यहाँ से हटा, और एक क्षण में पैशाचिक नर-हत्या होने लगेगी। मेरा मुख्य कर्तव्य अंत समय तक इन्हें रोकते रहना है। कोई मुजायका नहीं, अगर इन्होंने ताने दिये, अपमान किया, कलंक लगाया, दुर्वचन कहे। मैं अपराधी हूँ, अगर नहीं हूँ, तो भी मुझे धैर्य से काम लेना चाहिए। ये सभी बातें वह भूल गये। नीति-चतुर प्राणी अवसर के अनुकूल काम करता है। जहाँ दबना चाहिए, वहाँ दब जाता है; जहाँ गरम होना चाहिए, वहाँ गरम होता है। उसे मानापमान का हर्ष या दुःन नहीं होता। उसकी दृष्टि निरंतर अपने लक्ष्य पर रहती है। वह अविरलगति से, अदम्य उत्साह से उसो ओर बढ़ता है, किंतु सरल, लज्जाशील, निष्कपट आत्माएँ मेघों के समान होती हैं, जो अनुकूल वायु पाकर पृथ्वी को तृप्त कर देते हैं और प्रतिकूल वायु के वेग से छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। नीतिज्ञ के लिए अपना लक्ष्य ही सब कुछ है, आत्मा का उसके सामने कुछ मूल्य नहीं। गौरव-संपन्न प्राणियों के लिए अपना चरित्र-बल ही सर्वप्रधान है। वे अपने चरित्र पर किये गये आघातों को सह नहीं सकते। वे अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने को अपने लक्ष्य की प्राप्ति से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण सम- झते हैं। विनय की सौम्य आकृति तेजस्वी हो गई, लोचन लाल हो गये। वह उन्मत्तों