सोफी ने जाकर देखा, तो सूरदास के कंधे से रक्त प्रवाहित हो रहा था, अंग शिथिल पड़ गये थे, मुख विवर्ण हो रहा था; पर आँखें खुली हुई थीं और उनमें से पूर्ण शांति, संतोष और धैर्य की ज्योति निकल रही थी; क्षमा थी, क्रोध या भय का नाम न था। सोफी ने तुरंत रूमाल निकालकर रक्त प्रवाह को बंद किया और कंपित स्वर में बोली-"इन्हें अस्पताल भेजना चाहिए। अभी प्राण हैं; संभव है, बच जायँ।" भैरो ने उसे गोद में उठा लिया। सोफिया उसे अपनी गाड़ी तक लाई, उस पर सूरदास को लिटा दिया, आप गाड़ी पर बैठ गई और कोचवान को शफाखाने चलने का हुक्म दिया।
जनता नैराश्य और क्रोध से उन्मत्त हो गई। हम भी यहीं मर मिटेंगे। किसी को इतना होश न रहा कि यो मर मिटने से अपने सिवा किसी दूसरे की क्या हानि होगी। बालक मचलता है, तो जानता है कि माता मेरी रक्षा करेगी। यहाँ कौन माता थी, जो इन मचलनेवालों की रक्षा करेगी! लेकिन क्रोध में विचार-पट बंद हो जाता है। जन-समुदाय का वह अपार सागर उमड़ता हुआ गोरखों की ओर चला। सेवक-दल के युवक घबराए हुए इधर-उधर दौड़ते फिरते थे; लेकिन उनके समझाने का किसी पर असर न होता था। लोग दौड़-दौड़कर ईट और कंकड़-पत्थर जमा कर रहे थे। खंडहरों में मलबे की क्या कमी! देखते-देखते जगह-जगह पत्थरों के ढेर लग गये।
विनय ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है। आन-की-आन में सैकड़ों जानों पर बन आयेगो, तुरंत एक गिरी हुई दीवार पर चढ़कर बोले-"मित्रो, यह क्रोध का अवसर नहीं है, प्रतिकार का अवसर नहीं है, सत्य की विजय पर आनंद और उत्सव मनाने का अवसर है।"
एक आदमी बोला-“अरे! यह तो कुँवर विनयसिंह हैं।"
दूसरा-"वास्तव में आनंद मनाने का अवसर है, उत्सव मनाइए, विवाह मुबारक!"
तीसरा-"जब मैदान साफ हो गया, तो आप मुरदों की लाश पर आँसू बहाने के लिए पधारे हैं। जाइए, शयनागार में रंग उड़ाइए। यह कष्ट क्यों उठाते हैं।"
विनय-"हाँ, यह उत्सव मनाने का अवसर है कि अब भी हमारी पतित, दलित,
पीड़ित .जाति में इतना विलक्षण आत्मबल है कि एक निस्सहाय, अपंग, नेत्र-हीन भिखारी शक्ति-संपन्न अधिकारियों का इतनी वीरता से सामना कर सकता है।”
एक आदमी ने व्यंग्य-भाव से कहा-“एक बेकस अंधा जो कुछ कर सकता है, वह राजे-रईस नहीं कर सकते।"
दुसरा-"राजभवन में जाकर शयन कीजिए। देर हो रही है। हम अभागों को मरने दीजिए।"
तीसरा-"सरकार से कितना पुरस्कार मिलनेवाला है?"
चौथा-"आप ही ने तो राजपूताने में दरबार का पक्ष लेकर प्रजा को आग में झोंक दिया था।"
विनय-"भाइयो, मेरी निंदा का समय फिर मिल जायगा। यद्यपि मैं कुछ विशेष