विनय-"अच्छा! मि० क्लार्क आ गये! कब आये!"
सेवक-"आज ही चार्ज लिया है। सुना जाता है, उन्हें सरकार ने इसी कार्य के लिए विशेष रीति से यहाँ नियुक्त किया है।"
विनय-"तुम्हारे कितने आदमी वहाँ होंगे?"
सेवक-"कोई पचास होंगे।"
विनय कुछ सोचने लगे। सेवक ने कई मिनट बाद पूछा-'आप कोई विशेष आज्ञा देना चाहते हैं?"
विनय ने जमीन की तरफ ताकते हुए कहा-"बरबस आग में मत कूदना; और यथासाध्य जनता को उस सड़क पर जाने से रोकना।"
सेवक-"आप भी आयेंगे?"
विनय ने कुछ खिन्न होकर कहा-“देखा जायगा।"
सेवक के चले जाने के पश्चात् विनय कुछ देर तक शोक-मग्न रहे। समस्या थी, जाऊँ या न जाऊँ? दोनों पक्षों में तर्क-वितर्क होने लगा-"मैं जाकर क्या कर लूंगा, अधिकारियों की जो इच्छा होगी, वह तो अवश्य ही करेंगे। अब समझौते की कोई आशा नहीं। लेकिन यह कितना अपमान-जनक है कि नगर के लोग तो वहाँ जाने के लिए उत्सुक हों, और मैं, जिसने यह संग्राम छेड़ा, मुँह छिपाकर बैठ रहूँ। इस अवसर पर मेरा तटस्थ रहना मुझे जीवन-पर्यंत के लिए कलंकित कर देगा, मेरी दशा महेंद्रकुमार से भी गई-बीती हो जायगी। लोग समझेंगे, कायर है। एक प्रकार से मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत हो जायगा।"
लेकिन बहुत संभव है, आज भी गोलियाँ चलें। अवश्य चलेंगी। कौन कह सकता है, क्या होगा? सोफिया किसकी होकर रहेगी? आह! मैंने व्यर्थ जनता में यह भाव जायगा। अंधे का झोपड़ा गिर गया होता और सारी कथा समाप्त हो जाती। मैंने ही सत्याग्रह का झंडा खड़ा किया, नाग को जगाया, सिंह के मुँह में उँगली डाली।
उन्होंने अपने मन का तिरस्कार करते हुए सोचा-“आज मैं इतना कातर क्यों हो गया हूँ? क्या मैं मौत से डरता हूँ? मौत से क्या डर? मरना तो एक दिन है ही। क्या मेरे मरने से देश सूना हो जायगा? क्या मैं ही कर्णधार हूँ? क्या कोई दूसरी वीर-प्रसू माता देश में है ही नहीं?"
सोफिया कुछ देर तक टकटकी लगाये उनके मुँह की ओर ताकती रही। अकस्मात् ह उठ खड़ी हुई और बोली-"मैं वहाँ जाती हूँ।"
विनय ने भयातुर होकर कहा-"आज वहाँ जाना दुस्साहस है। सुना नही, सारे नाकेबंद कर दिये गये हैं?"
सोफिया-"स्त्रियों को कोई नारोकेगा।"
विनय ने सोफिया का हाथ पकड़ लिया और अत्यंत प्रेम-विनीत भाव से कहा-