थीं। इंद्रदत्त की हत्या ने उन्हें बहुत सशंक कर दिया था। उन्हें भय था कि उस हत्या-कांड का अंतिम दृश्य उससे कहीं भयंकर होगा। और, सबसे बड़ी बात तो यह थी कि विवाह का निश्चय होते ही विनय का सदुत्साह भी क्षीण होने लगा था। सोफिया के पास बैठकर उससे सांत्वनाप्रद बातें करना और उसकी अनुराग-पूर्ण बातें सुनना उन्हें अब बहुत अच्छा लगता था। सोफिया की गुप्त याचना ने प्रेमोद्गारों को और भी प्रबल कर दिया। हम पहले मनुष्य हैं, पीछे देश-सेवक। देशानुराग के लिए हम अपने मानवीय भावों की अवहेलना नहीं कर सकते। यह अस्वाभाविक है। निज पुत्र की मृत्यु का शोक जाति पर पड़नेवाली विपत्ति से कहीं अधिक होता है। निज शोक मर्मान्तक होता है, जातिशोक निराशा-जनक; निज शोक पर हम रोते हैं, जाति-शोक पर चिंतित हो जाते हैं।
एक दिन प्रातःकाल विनय डॉक्टर के यहाँ से दवा लेकर लौटे थे (सद्वौद्यों के होते हुए भी उनका विश्वास पाश्चात्य चिकित्सा ही पर अधिक था) कि कुँवर साहब ने उन्हें बुला भेजा। विनय इधर महीनों से उनसे मिलने न गये थे। परस्पर मनोमालिन्यसा हो गया था। विनय ने सोफी को दवा पिलाई, और तब कुँवर साहब से मिलने गये। वह अपने कमरे में टहल रहे थे, इन्हें देखकर बोले-"तुम तो अब कभी आते ही नहीं।"
विनय ने उदासीन भाव से कहा-“अवकाश नही मिलता। आपने कभी याद भी तो नहीं किया। मेरे आने से कदाचित आपका समय नष्ट होता है।"
कुँवर साहब ने इस व्यंग्य को परवा न करके कहा-“आज मुझे तुमसे एक महान संकट में राय लेनी है! सावधान होकर बैठ जाओ, इतनी जल्द छुट्टी न होगी।"
विनय-“फरमाइए, मैं सुन रहा हूँ।"
कुँवर साहब ने घोर असमंजस के भाव से कहा-'गवर्नमेंट का आदेश है कि तुम्हारा नाम रियासत से....."
यह कहते-कहते कुँवर साहब रो पड़े। जरा देर में करुणा का उद्वेग कम हुआ, तो बोले—"मेरी तुमसे विनीत याचना है कि तुम स्पष्ट रूप से अपने को सेवक-दल से पृथक्कर लो और समाचार-पत्रों में इसी आशय की एक विज्ञप्ति प्रकाशि कर दो। तुमसे यह याचना करते हुए मुझे कितनी लजा और कितना दुःख हो रहा है, इसका अनुमान तुम्हारे सिवा और कोई नहीं कर सकता; पर परिस्थिति ने मुझे विवश कर दिया है। मैं तुमसे यह कदाग्निं नहीं कहता कि किसी की खुशामद करो, किसी के सामने सिर झुकाओ, नहीं, मुझे स्वयं इससे घृणा थी और है। किंतु अपनी भूसंपत्ति की रक्षा के लिए मेरे अनुरोध को स्वीकार करो। मैंने समझा था, रियासत को सरकार के हाथ में दे देना काफी होगा। किंतु अधिकारी लोग इसे काफी नहीं समझते। ऐसी दशा में मेरे लिए दो ही उपाय हैं—या तो तुम स्वयं इन आंदोलनों से पृथक् हो जाओ, या कम-से-कम उनमें प्रमुख भाग न लो, या मैं एक प्रतिज्ञा-पत्र द्वारा तुम्हें रियासत से वंचित कर दूँ। भावी