जनता क्रोध में अपने को भूल जाती है, मौत पर हँसती है। कहीं माहिरअली उतावली कर बैठा, तो निस्संदेह उपद्रव हो जायगा। इसका सारा इलजाम मेरे सिर जायगा। यह अंधा आप तो डूबा ही हुआ है, मुझे भी डुबाये देता है। बुरी तरह मेरे पीछे पड़ा हुआ है। लेकिन इस समय वह हाकिम की हैसियत में थे। हुक्म को वापस न ले सकते थे। सरकार की आबरू में बट्टा लगने से कहीं ज्यादा भय अपनी आबरू में बट्टा लगने का था। अब यही एक उपाय था कि जनता को झोंपड़े की ओर न जाने दिया जाय। सुपरिटेंडेंट अभी-अभी मिल से लौटा था, और घोड़े पर सवार सिगार पी रहा था कि राजा साहब ने जाकर उससे कहा-इन आदमियों को रोकना चाहिए।"
उसने कहा-"जाने दीजिए, कोई हरज नहीं, शिकार होगा।"
"भीषण हत्या होगी।"
"हम इसके लिए तैयार हैं।"
विनय के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। न आगे जाते बनता था, न पीछे। घोर आत्मवेदना का अनुभव करते हुए बोले-"इंद्र, मैं बड़े संकट में हूँ।"
इंद्रदत्त ने कहा-"इसमें क्या संदेह है!"
"जनता को काबू में रखना कठिन है।"
"आप जाइए, मैं देख लूँगा। आपका यहाँ रहना उचित नहीं।"
"तुम अकेले हो जाओगे!"
"कोई चिंता नहीं।"
"तुम भी मेरे साथ क्यों नहीं चलते? अब हम यहाँ रहकर क्या कर लेंगे, हम अपने कर्तव्य का पालन कर चुके।"
“आप जाइए। आपको जो संकट है, वह मुझे नहीं। मुझे अपने किसी आत्मीय के मानअपमान का भय नहीं।"
विनय वहीं अशांत और निश्चल खड़े रहे, या यों कहो कि गड़े रहे, मानों कोई स्त्री घर से निकाल दी गई हो। इंद्रदत्त उन्हें वहीं छोड़कर आगे बढ़े, तो जन-समूह उसी गली के मोड़ पर रुका हुआ था, जो सूरदास के झोंपड़े की ओर जाती थी। गली के द्वार पर पाँच सिपाही संगीनें चढ़ाये खड़े थे। एक कदम आगे बढ़ना संगीन की नोक को छाती पर लेना था। संगीनों की दीवार सामने खड़ी थी।
इंद्रदत्त ने एक कुएँ की जगत पर खड़े होकर उच्च स्वर से कहा—“भाइयो, सोच लो, तुम लोग क्या चाहते हो? क्या इस झोपड़ी के लिए पुलिस से लड़ोगे? अपना और अपने भाइयों का रक्त बहाओगे? इन दामों यह झोपड़ी बहुत महँगी है। अगर उसे बचाना चाहते हो, तो इन आदमियों ही से विनय करो, जो इस वक्त वरदी पहने, संगोनें चढ़ाये, यमदूत बने हुए तुम्हारे सामने खड़े हैं, और यद्यपि प्रकट रूप से वे तुम्हारे शत्रु हैं, पर उनमें एक भी ऐसा न होगा, जिसका हृदय तुम्हारे साथ न हो, जो एक असहाय, दुर्बल, अंधे की झोंपड़ी गिराने में अपनी दिलावरी समझता हो।