एक ब्राह्मण ने इसका विरोध किया-"क्या बकते हो वेचारे ने रुपये अपने पास से दिए हैं।"
तीसरा-तुम गौखे हो, ये चालें क्या जानो, जाके पोथी पढ़ो, और पैसे ठगो।”
चौथा-"सबों ने पहले ही सलाह कर ली होगी। आपस में रुपए बाँट लेते, हम लोग ठाठ ही पर रह जाते।"
एक मुंशोजी बोले-इतना भी न करें, तो सरकार कैसे खुश हो। इन्हें चाहिए था कि रिआया की तरफ से सरकार से लड़ते, मगर आप नुद ही खुशामदी टट्ट बने हुए हैं। सरकार का दबाव तो हीला है।
पाँचवाँ-"तो यह समझ लो, हम लोग न आ जाते, तो बेचारों को कौड़ी भी न मिलती। घर से निकल जाने पर कौन देता है, और कौन लेता है! बेचारे माँगने जाते, तो चपरासियों से मारकर निकलवा देते।”
जनता की दृष्टि में एक बार विश्वास खोकर फिर जमाना मुश्किल है। राजा साहब को जनता के दरबार से यह उपहार मिल रहा था!
संध्या हो गई थी। चार-ही-पाँच असामियों को रुपए मिलने पाए थे कि अँधेरा हो गया। राजा साहब ने लैंप की रोशनी में नौ बजे रात तक रुपये बाँटे। तब नायकराम ने कहा——
"सरकार, अब तो बहुत देर हुई। न हो, कल पर उठा रखिए।"
राजा साहब भी थक गए थे, जनता को भी अब रुपए मिलने में कोई बाधा न दीखती थी, काम कल के लिए स्थगित कर दिया गया। मगर सशस्त्र पुलिस ने वहीं डेरा जमाया कि कहीं फिर न लोग जमा हो जाँय।
दूसरे दिन दस बजे फिर राजा साहब आए, विनय और इंद्रदत्त भी कई सेवकों के साथ आ पहुँचे। नामावली खोली गई। सबसे पहले सूरदास की तलबी हुई। लाठी टेकता हुआ आकर राजा साहब के सामने खड़ा हो गया।
राजा साहब ने उसे सिर से पाँव तक देखा, और बोले-'तुम्हारे मकान का मुआवजा केवल १) है, यह लो, और घर खाली कर दो।"
सूरदास—"कैसा रुपया?"
राजा—"अभी तुम्हें मालूम ही नहीं, तुम्हारा मकान सरकार ने ले लिया है। यह उसी का मुआवजा है।"
सूरदास—"मैंने तो अपना मकान बेचने को किसी से नहीं कहा।"
राजा—"और लोग भी तो खाली कर रहे हैं।"
सूरदास-जो लोग छोड़ने पर राजी हों, उन्हें दीजिए। मेरी झोपड़ी रहने दीजिए। पड़ा रहूँगा, और हजूर का कल्यान मनाता रहूँगा।"
राजा—“यह तुम्हारी इच्छा की बात नहीं है, सरकारी हुक्म है। सरकार को इस