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रंगभूमि


पहने, पर प्रसन्न-वदन। माहिरअली को देखते ही चचा-चचा कहते हुए उसकी तरफ दौड़े। ये दोनो साबिर और नसीमा थे। कुल्सूम ने इसी मुहल्ले में एक छोटा-सा मकान १) किराए पर ले लिया था। गोदाम का मकान जॉन सेवक ने खाली करा लिया था। बेचारी इसी छोटे-से घर में पड़ी अपनी मुसीबत के दिन काट.रही थी। माहिर ने दोनों बच्चों को देखा, तो कुछ झेपते हुए बोले-"भाग जाओ, भाग जाओ, यहाँ क्या करने आए?" दिल में शरमाए कि सब लोग कहते होंगे, ये इनके भतीजे हैं, और इतने फटे हाल, यह उनकी खबर भी नहीं लेते।

नायकराम ने दोनो बच्चों को दो-दो पैसे देकर कहा-"जाओ, मिठाई खाना, ये तुम्हारे चचा नहीं हैं।" नसीमा-हूँ ! चचा तो हैं, क्या मैं पहचानती नहीं?"

नायकराम-"चचा होते, तो तुझे गोद में न उठा लेते, मिठाइयाँ न मँगा देते? तू भूल रही है।"

माहिरअली ने ऋद्ध होकर कहा -"पंडाजी, तुम्हें इन फिजूल बातों से क्या मतलब? मेरे भतीजे हों या न हों, तुमसे सरोकार? तुम किसी की निज की बातों में बोलनेवाले कौन होते हो? भागो साबिर, नसीमा भाग, नहीं तो सिपाही पकड़ लेगा।"

दोनो बालकों ने अविश्वास-पूर्ण नेत्रों से माहिरअली को देखा, और भागे। रास्ते में नसीमा ने कहा-"चचा ही-जैसे तो हैं, क्यों साबिर, चचा ही हैं न?"

साबिर-"नहीं तो और कौन हैं?"

नसीमा-"तो फिर हमें भगा क्यों दिया?"

साबिर-'जब अब्बा थे, तब न हम लोगों को प्यार करते थे! अब तो अब्बा नहीं हैं तब तो अब्बा ही सबको खिलाते थे।"

नसीमा-"अम्मा को भी तो अब अब्वा नहीं खिलाते। वह तो हम लोगों को पहले से ज्यादा प्यार करती हैं। पहले कभी पैसे न देती थीं, अब तो पैसे भी देती हैं।"

साबिर–“वह तो हमारी अम्मा हैं न।"

लड़के तो चले गए, इधर दारोगाजी ने सिपाहियों को हुक्म दिया-“फेक दो असबाब, और मकान फौरन खाली करा लो। ये लोग लात के आदमी हैं, बातों से न मानेंगे।"

दो कांस्टेबिल हुक्म पाते ही बजरंगी के घर में घुस गए, और बरतन निकाल निकाल फेकने लगे, बजरंगी बाहर लाल आँखें किए खड़ा ओठ चबा रहा था। जमुनी घर में इधर-उधर दौड़ती-फिरती थी, कभी हाँड़ियाँ उठाकर बाहर लाती, कभी फेके हुए बरतनों को समेटती। मुँह एक क्षण के लिये भी बंद न होता था-"मूड़ी काटे कारखाना बनाने चले हैं, दुनिया को उजाड़कर अपना घर भरेंगे, भगवान भी ऐसे पापियों का संहार नहीं करते, न-जाने कहाँ जाके सो गए हैं! हाय! हाय! घिहुआ की जोड़ी पटककर तोड़ डाली!"