गया, त्रिमूर्ति ने उसकी भेंट से प्रसन्न होकर रस्सियाँ ढीली कर दी, क्षेत्रफल बढ़ गया। ठाकुरदीन ने इन देवतों को प्रसन्न करने के बदले शिवजी को प्रसन्न करना ज्यादा आसान समझा: वहाँ एक लोटे जल के सिवा विशेष खर्च न था। दोनों वक्त पानी देने लगे। पर इस समय त्रिमूर्ति का दौरदौरा था, शिवजी की एक न चली, त्रिमूर्ति ने उनके छोटे, पर पके घर को कच्चा सिद्ध किया। बजरंगी देवतों को प्रसन्न करना क्या जाने, उन्हें नाराज ही कर चुका था, पर जमुनी ने अपनी सुबुद्धि से बिगड़ता हुआ काम बना लिया। मुंशीजी उसकी एक बछिया पर रीझ गए, उस पर दाँत लगाए। बजरंगी जानवरों को प्राण से भी प्रिय समझता था, तिनक गया। नायकराम ने कहा, बजरंगी पछताओगे बजरंगी ने कहा, चाहे एक कौड़ी मुभावजा न मिले, पर बछिया न दूंगा। आखिर जमुनी ने, जो सौदे पटाने में बहुत कुशल थी, उसको एकांत में ले जाकर समझाया कि जानवरों के रहने का कहीं ठिकाना भी है? कहाँ लिए-लिए फिरोगे? एक बछिया के देने से सौ रुपए का काम निकलता है, तो क्यों नहीं निकालते? ऐसी न-जाने कितनी बछिया पैदा होंगी, देकर सिर से बला टालो। उसके समझाने से अंत में बजरंगी भी राजी हो गया!
पंद्रह दिन तक त्रिमूर्ति का राज्य रहा। तखमीने के अफसर साहब बारह बजे घर से आते, अपने कमरे में दो-चार सिगार पीते, समाचार-पत्र पढ़ते, एक-दो बजे घर चल देते। जब तालिका तैयार हो गई, तो अफसर साहब उसकी जाँच करने लगे फिर निवासियों की बुलाहट हुई। अफसर ने सबके तखमीने पढ़-पढ़कर सुनाए। एक सिरे से धाँधली थी। भैरो ने कहा-"हजूर, चलकर हमारा घर देख लें, वह बड़ा है कि जगधर का! इनको तो मिलें ४००), और मुझे मिले ३००)। इस हिसाब से मुझे ६००) मिलना चाहिए।"
ठाकुरदीन बिगड़ेदिल थे ही, साफ-साफ कह दिया-"साहब, तखमीना किसी हिसाब से थोड़े ही बनाया गया है। जिसने मुँह मीठा कर दिया, उसकी चाँदी हो गई; जो भगवान के भरोसे बैठा रहा, उसकी बधिया बैठ गई। अब भी आप मौके पर चल कर जाँच नहीं करते कि ठीक-ठीक तखमीना हो जाय, गरीबों के गले रेत रहे हैं।"
अफसर ने बिगड़कर कहा—"तुम्हारे गाँव का मुखिया तो तुम्हारी तरफ से रख लिया गया था। उसकी सलाह से तखमीना किया गया है। अब कुछ नहीं हो सकता।"
ठाकुरदीन—"अपने कहलानेवाले तो और लूटते हैं।"
अफसर—"अब कुछ नहीं हो सकता।"
सूरदास की झोपड़ी का मुआवजा १) रक्खा गया था, नायकराम के घर के पूरे ३ हजार। लोगों ने कहा-"यह गाँव-घरवालों का हाल! ये हमारे सगे हैं, भाई का गला काटते हैं। उस पर घमंड यह कि हमें धन का लोभ नहीं। आखिर तो पंडा ही न, जात्रियों को ठगनेवाला! जभी तो यह हाल है। जरा-सा अखतियार पाके आँखे