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रंगभूमि

शिवसेवक बनिया ने कहा—"मेरे तो उनके सामने खड़े होते पैर थरथर काँपते हैं। न जाने कोई कैसे हाकिमों से बातें करता है। मुझे तो वह जरा डाट दें, तो दम ही निकल जाय।"

झींगुर तेली बोला—'हाकिमों का बड़ा रोब होता है। उनके सामने तो अकिल ही खप्त हो जाती है।"

सूरदास—"मुझसे तो उठा ही नहीं जाता; चलना भी चाहूँ, तो कैसे चलूँगा।”

सूरदास यों लाठी के सहारे घर से बाहर आने-जाने लगा था, पर इस वक्त अनायास उसे कुछ मान करने की इच्छा हुई। कहने से धोबी गधे पर नहीं चढ़ता।

ठाकुरदीन—'यह कौन मुसकिल काम है! हम लोग तुम्हें उठा ले चलेंगे।"

सूरदास—"भाई, करोगे सब जने अपने-अपने मन ही को, मुझे क्यों नक बनाते हो! जो सबकी गत होगी, वही मेरी भी गत होगी। भगवान की जो मरजी है। वह होगी।"

ठाकुरदीन ने बहुत चिरौरी की, पर सूरदास चलने पर राजी न हुआ। तब ठाकुर-दीन को क्रोध आ गया। बेलाग बात कहते थे। बोले-“अच्छी बात है, मत जाओ। क्या तुम समझते हो, जहाँ मुरगा न होगा, वहाँ सबेरा ही न होगा? चार आदमी सराहने लगे, तो अब मिजाज ही नहीं मिलते। सच कहा है, कौआ धोने से बगला नहीं होता।”

आठ बजते-बजते अधिकारी लोग बिदा हो गये। अब लोग नायकराम के घर आकर पंचायत करने लगे कि क्या किया जाय।

जमुनी-"तुम लोग यों ही बकवास करते रहोगे, और किसी का किया कुछ न होगा। सूरदास के पास जाकर क्यों नहीं सलाह करते? देखो, क्या कहता है?"

बजरंगी-"तो जाती क्यों नहीं, मुझी को ऐसी कौन-सी गरज पड़ी हुई है?"

जमुनी-"तो फिर चलकर अपने-अपने घर बैठो, गपड़चौथ करने से क्या होना है।"

भैरो—'बजरंगी, यह हेकड़ी दिखाने का मौका नहीं है। सूरदास के पास सब जने मिलकर चलो। वह कोई-न-कोई राह जरूर निकालेगा।"

ठाकुरदीन-"मैं तो अब कभी उसके द्वार पर न जाऊँगा। इतना कह-सुनकर "हार गया, पर न उठा। अपने को लगाने लगा है।"

जगधर-"सूरदास क्या कोई देवता है, हाकिम का हुकुम पलट देगा?"

ठाकुरदीन-"मैं तो गोद में उठा लाने को तैयार था।"

बजरंगी-“घमंड है घमंड कि और लोग क्यों नहीं आये। गया क्यों नहीं हाकिमों के सामने? ऐसा मर थोड़े ही रहा है!"

जमुनी-"कैसे आता? वह तो हाकिमों से बुरा बने, यहाँ तुम लोग अपने-अपने मन की करने लगे, तो उसकी भद्द हो।”