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रंगभूमि


अब मेरे हाथ-पाँव हुए, कुछ मेरा धर्म भी उसके प्रति है या नहीं, आखिर किस दिन के लिए उसने मुझे अपने लड़के की भाँति पाला था। सूरदास कई बार खुद स्टेशन पर गया, और उससे कहा कि साँझ को घर चला आया कर, क्या अब भी भीख माँगू, मगर उसकी बला सुनती थी। एक बार उसने साफ कह दिया, यहाँ मेरा गुजर तो होता नहीं, तुम्हारे लिए कहाँ से लाऊ? मेरे लिए तुमने कौन-सी बड़ी तपस्या की थो, एक टुकड़ा रोटी दे देते थे, कुत्ते को न दिया, मुझो को दे दिया। तुमसे मैं कहने गया था कि मुझे खिलाओ-पिलाओ, छोड़ क्यों न दिया, जिन लड़कों के माँ-बार नहीं होते, वे सब क्या मर ही जाते हैं? जैसे तुम एक टुकड़ा दे देते थे, वैसे बहुत टुकड़े मिल जाते। इन बातों से सूरदास का दिल ऐसा टूटा कि फिर उससे घर आने को न कहा।

इधर सोफ़िया कई बार सूरदास से मिल चुकी थी। वह और तो कहीं न जाती, पर समय निकालकर सूरदास से अवश्य मिल जाता। ऐसे मौके से आती कि सेवकजी से सामना न होने पाये। जब आती, सूरदास के लिए कोई-न-कोई सौगात जरूर लाती। उसने इंद्रदत्त से उसका सारा वृत्तांत सुना था उसका अदालत में जनता से अपील करना, चंदे के रुपये स्वयं न लेकर दूसरे को दे देना, जमीन के रुपये, जो सरकार से मिले थे, दान दे देना-तब से उसे उससे और भी भक्ति हो गई थी। गँवारों की धर्म-पिपासा ईट-पत्थर पूजने से शांत हो जाती है, भद्रजनों की भक्ति सिद्ध पुरुषों की सेवा से। उन्हें प्रत्येक दीवाना पूर्वजन्म का कोई ऋषि मालूम होता है। उसकी गालियाँ सुनते हैं, उसके जूठे बरतन धोते हैं, यहाँ तक कि उसके धूल-धूसरित पैरों को धोकर चरणा-मृत लेते हैं। उन्हें उसको काया में कोई देवात्मा बैठो हुई मालूम होती है। सोफिया को सूरदास से कुछ ऐसी ही भक्ति हो गई थी। एक बार उसके लिए संतरे और सेब ले गई। सूरदास घर लाया, पर आप न खाया, मिठुआ की याद आई, उसकी कठोर बातें विस्मृत हो गई, सबेरे उन्हें लिये स्टेशन गया और उसे दे आया। एक बार सोफी के साथ ईदु भी आई थी। सरदो के दिन थे। सूरदास खड़ा काँप रहा था। इंदु ने वह कम्बल, जो वह अपने पैरों पर डाले हुए थी, सूरदास को दे दिया। सूरदास को वह कम्बल ऐसा अच्छा मालूम हुआ कि नुद न ओढ़ सका। मैं बुड्ढा भिखारी, यह कम्मल ओढ़कर कहाँ जाऊँगा? कौन भीख देगा? रात को जमीन पर लेटू, दिन-भर सड़क के किनारे खड़ा रहूँ, मुझे यह कम्मल लेकर क्या करना? जाकर मिठुआ को दे आया। इधर तो अब भी इतना प्रेम था, उधर मिठुआ इतना स्वार्थो था कि खाने को भी न पूछता। सूरदास समझता कि लड़का है, यही इसके खाने-पहनने के दिन हैं, मेरी खबर नहीं लेता, खुद तो आराम से खाता-पहनता है। अपना है, तो कब न काम आयेगा।

फागुन का महीना था, संध्या का समय। एक स्त्री घास बैंचकर जा रही थी। मजदूरों ने अभी-अभी काम से छुट्टो पाई थी। दिन भर चुपचाप चरखियों के सामने खडे खड़े उकता गये थे, विनोद के लिए उत्सुक हो रहे थे। घसियारिन को देखते ही