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रंगभूमि

कुँवर साहब सजल-नयन होकर बोले—“विनय, मुझसे ऐसी कठोर बातें न करो। मैं तुम्हारे तिरस्कार का नहीं, तुम्हारो सहानुभूति और दया का पात्र होने योग्य हूँ। मैं जानता हूँ, केवल सामाजिक सेवा से हमारा उद्धार नहीं हो सकता। यह भी जानता हूँ कि हम स्वच्छंद होकर सामाजिक सेवा भी नहीं कर सकते। कोई आयोजना, जिससे देश में अपनी दशा को अनुभव करने की जागृति उत्पन्न हो, जो भ्रातृत्व और जातीयता के भावों को जगाये, संदेह से मुक्त नहीं रह सकती। यह सब जानते हुए मैंने सेवा-क्षेत्र में कदम रखे थे। पर यह न जानता था कि थोड़े ही समय में यह संस्था यह रूप धारण करेगी और इसका यह परिणाम होगा! मैंने सोचा था, मैं परोक्ष में इसका संचालन करता रहूँगा; यह न जानता था कि इसके लिए मुझे अपना सर्वस्व-और अपना ही नहीं, भावी संतान का सर्वस्व भी होम कर देना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें इतने महान् त्याग की सामर्थ्य नहीं।"

विनय ने इसका कुछ जवाब न दिया। अपने या सोफी के विषय में भी उन्हें कोई चिंता न थी, चिंता थी सेवा-दल के संचालन की। इसके लिए धन कहाँ से आयेगा? उन्हें कभी भिक्षा माँगने की जरूरत न पड़ी थी। जनता से रुपये कैसे मिलते हैं, यह गुर न जानते थे। कम-से-कम पाँच हजार माहवार का खर्च था। इतना धन एकत्र करने के लिए एक संस्था की अलग ही जरूरत थी। अब उन्हें अनुभव हुआ कि धन-संपत्ति इतनी तुच्छ वस्तु नहीं। पाँच हजार रुपये माहवार, ६० हजार रुपये साल, के लिए १२ लाख का स्थायी कोश होना आवश्यक है। कुछ बुद्धि काम न करती थी। जाह्नवी के पास निज का कुछ धन था, पर वह उसे देना न चाहती थीं और अब तो उसकी रक्षा करने की और भी जरूरत थी, क्योंकि वह विनय को दरिद्र नहीं बनाना चाहती थीं।

तीसरे पहर का समय था। विनय और इंद्रदत्त, दोनों रुपयों की चिंता में मम बैठे हुए थे। सहसा सोफिया ने आकर कहा—"मैं एक उपाय बताऊँ?"

इंद्रदत्त—"भिक्षा माँगने चलें?"

सोफिया—"क्यों न एक ड्रामा खेला जाय। ऐक्टर हैं ही, कुछ परदे बनवा लिये जायँ, मैं भी परदे बनाने में मदद दूंगी।".

विनय—"सलाह तो अच्छी है, लेकिन नायिका तुम्हें बनना पड़ेगा।"

सोफिया—"नायिका का पार्ट इंदुरानी खेलेंगी, मैं परिचारिका का पार्ट लूंगी।


इंद्रदत्त—"अच्छा, कौन-सा नाटक खेला जाय? भट्टजी का 'दुर्गावती' नाटक?"

विनय—"मुझे तो 'प्रसाद' का 'अजातशत्रु' बहुत पसंद है।"

सोफिया—"मुझे 'कर्बला' बहुत पसंद आया। वीर और करुण, दोनों ही रसों का अच्छा समावेश है।"

इतने में एक डाकिया अंदर दाखिल हुआ और एक मुहरबंद रजिस्टर्ड लिफाफा विनय के हाथ में रखकर चला गया। लिफाफे पर प्रभु सेवक की मुहर थी। लंदन से आया था।