जवाब उन्हें मालूम था। उनसे उपेक्षा और दुराग्रह के सिवा सहानुभूति की जरा भी आशा नहीं। कहने से फायदा ही क्या? अभी तो विनय को कुछ भय भी है। यह हाल सुनेगा, तो और भी दिलेर हो जायगा। अन्त को उन्होंने यही निश्चय किया कि अभी बतला देने से कोई फायदा नहीं, और विघ्न पड़ने की संभावना है। जब काम पूरा हो जायगा, तो कहने-सुनने को काफी समय मिलेगा।
मिस्टर जॉन सेवक पैरों-तले घास न जमने देना चाहते थे। दूसरे ही दिन उन्होंने एक बैरिस्टर से प्रार्थना-पत्र लिखवाया और कुँचर साहब को दिखाया। उसी दिन वह कागज डॉक्टर गंगुली के पास भेज दिया गया। डॉक्टर गंगुली ने इस प्रस्ताव को बहुत पसन्द किया और खुद शिमले से आये। यहाँ कुँवर साहब से परामर्श किया और दोनों आदमी प्रान्तीय गवर्नर के पास पहुँचे। गवर्नर को इंसमें क्या आपत्ति हो सकती थी, विशेषतः ऐसी दशा में, जब रियासत पर एक कौड़ी भी कर्ज न था? कर्मचारियों ने रियासत के हिसाब-किताब की जाँच शुरू की और एक महीने के अन्दर रियासत पर सरकारी अधिकार हो गया। कुँवर साहब लजा और ग्लानि के मारे इन दिनों विनय से बहुत कम बोलते, घर में बहुत कम आते, आँखें चुराते रहते थे कि कहीं यह प्रसंग न छिड़ जाय। जिस दिन सारी शर्ते तय हो गई, कुँवर साहब से न रहा गया, विनयसिंह से बोले -"रियासत पर तो सरकारी अधिकार हो गया।"
विनय ने चौंककर पूछा—"क्या जब्त हो गई?"
कुँवर—"नहीं, मैंने कोर्ट ऑफ वार्ड स के सिपुर्द कर दिया!"
यह कहकर उन्होंने शर्तों का उल्लेख किया, और विनीत भाव से बोले—"क्षमा करना, मैंने तुमसे इस विषय में सलाह नहीं ली।"
विनय—"मुझे इसका बिलकुल दुःख नहीं है, लेकिन आपने व्यर्थ ही अपने को गवर्नमेंट के हाथ में डाल दिया। अब आपकी हैसियत केवल एक वसीकेदार की है, जितका वसीका किसी वक्त बंद किया जा सकता है।"
कुँवर—"इसका इलजाम तुम्हारे सिर है।"
विनय—"आपने यह निश्चय करने के पहले ही मुझसे सलाह ली होती, तो यह नौबत न आने पाती। मैं आजीवन रियासत से पृथक् रहने का प्रतिज्ञा पत्र लिख देता और आप उसे प्रकाशित करके हुक्काम को प्रसन्न रख सकते थे।"
कुँबर—(सोचकर) "उस दशा में भी यह संदेह हो सकता था कि मैं गुप्त रीति से तुम्हारी सहायता कर रहा हूँ। इस संदेह को मिटाने के लिए मेरे पास और कौन साधन था?"
विनय—"तो मैं इस घर से निकल जाता और आपसे मिलना-जुलना छोड़ देता। अब भी अगर आप इस इंतजाम को रद्द करा सकें, तो अच्छा हो। मैं अपने खयाल से नहीं, आप ही के खयाल से कह रहा हूँ। मैं अपने निर्वाह की कोई राह निकाल लूंँगा।"