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प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि० जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भाँति वह केवछ बतलाये हुए मार्ग पर आँखें बन्द करके चलने पर ही सन्तुष्ट न थे, उनकी निगाह आगे-पीछे, दायें-बायें भी रहती थी। विशेषज्ञों में एक संकीर्णता होती है, जो उनकी दृष्टि को सीमित रखती है। वह किसी विषय पर स्वाधीन होकर विस्तीर्ण दृष्टि नहीं डाल सकते, नियम, सिद्धान्त और परम्परागत व्यवहार उनकी दृष्टि को फैलने नहीं देते। वैद्य प्रत्येक रोग की औषधि ग्रन्थों में खोजता है; वह केवल निदान का दास है, लक्षणों का गुलाम, वह यह नहीं जानता कि कितने ही रोगों की औपधि लुकमान के पास भी न थी। सहज बुद्धि अगर सूक्ष्मदर्शी नहीं होती, तो संकुचित भी नहीं होती। वह हरएक विषय पर व्यापक रीति से विचार कर सकती, जरा-जरा-सी बातों में उलझकर नहीं रह जाती। यही कारण है कि मन्त्री-भवन में बैठा हुआ सेना-मंत्री सेनापति पर शासन करता है। प्रभु सेवक के पृथक्हो जाने से मि० जॉन सेवक लेश-मात्र भी चिन्तित नहीं हुए। वह दूने उत्साह से काम करने लगे। व्यवहार-कुशल मनुष्य थे। जितनी आसानी से कार्यालय में बैठकर बही-खाते लिख सकते थे, उतनी ही आसानी से अवसर पड़ने पर एजिन के पहियों को भी चला सकते थे। पहले कभी-कभी सरसरी निगाह से मिल को देख लिया करते थे, अब नियमानुसार और यथासमय जाते बहुधा दिन को भोजन वहीं करते और शाम को घर आते। कभी-कभी रात के नौ-दस बज जाते। वह प्रभु सेवक को दिखा देना चाहते थे कि मैंने तुम्हारे ही बल-बूते पर यह काम नहीं उठाया है, कौवे के न बोलने पर भी दिन निकल ही आता है। उनके धन-प्रेम का आधारा संतान-प्रम न था। वह उनके जीवन का मुख्य अंग, उनकी जीवन-धारा का मुख्य स्रोत था। संसार के और सभी धंधे इसके अंतर्गत थे।
मजदूरों और कारीगरों के लिए मकान बनवाने की समस्या अभी तक हल न हुई थी। यद्यपि जिले के मजिस्ट्रेट से उन्होंने मेल-जोल पैदा कर लिया था, पर चतारी के राजा साहब की ओर से उन्हें बड़ी शंका थी। राजा साहब एक बार लोकमत की उपेक्षा करके इतने बदनाम हो चुके थे कि उससे कहीं महत्त्व-पूर्ण विजय को आशा भी अब उन्हें वे चोटें खाने के लिए उत्तेजित न कर सकती थी। मिल बड़ी धूम से चल रही थी, लेकिन उसकी उन्नति के मार्ग में मजदूरों के मकानों का न होना सबसे बड़ी बाधा थी। जॉन सेवक इसी उधेड़-बुन में पड़े रहते थे।
संयोग से परिस्थितियों में कुछ ऐसा उलट-फेर हुआ कि यह विकट समस्या बिना