यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४७३
रंगभूमि

दारोगा ने कहा—"पंडाजी, जब तुम बीच में पड़े हुए हो, तो सौ-पचास की कोई बात नहीं; लेकिन अंधे को मालूम हो जायगा कि रपट नहीं लिखी गई, तो सीधा डिप्टी साहब के पास जा पहुँचेगा। फिर मेरी जान आफत में पड़ जायगी। निहायत रूखा अफसर है, पुलिस का तो जानी दुश्मन ही समझो। अंधा यों माननेवाला असामी नहीं है। जब इसने चतारी के राजा साहब को नाकों चने चबवा दिये, तो दूसरों की कौन गिनती है। बस, यही हो सकता है कि जब मैं तफतीश करने आऊँ, तो आप लोग किसी को शहादत न देने दें। अदम सबूत में मुआमला खारिज हो जायगा। मैं इतना ही कर सकता हूँ कि शहादत के लिए किसी को दबाऊँगा नहीं, गवाहों के बयान में भी कुछ काट-छाँट कर दूंँगा।"

दूसरे दिन संध्या-समय दारोगाजी तहकीकात करने आये। मुहल्ले के सब आदमी जमा हुए; मगर जिससे पूछो, यही कहता है-"मुझे कुछ मालूम नहीं, मैं कुछ नहीं जानता, मैंने रात को किसी की 'चोर-चोर' आवाज नहीं सुनी, मैंने किसी को सूरदास के द्वार पर नहीं देखा, मैं तो घर में द्वार बंद किये पड़ा सोता था। यहाँ तक कि ठाकुरदोन ने भी साफ कहा -“साहब, मैं कुछ नहीं जानता।" दारोगा ने सूरदासं पर बिगड़कर कहा-"झूठी रपट करता है बदमाश!"

सूरदास—"रपट झूठी नहीं है, सच्ची है।"

दारोगा—"तेरे कहने से सच्ची मान लूँ? कोई गवाह भी है?"

सूरदास ने मुहल्लेवालों को संबोधित करके कहा—“यारो, सच्ची बात कहने से मत डरो। मेल-मुरौवत इसे नहीं कहते कि किसी औरत की आबरू बिगाड़ दो जाय और लोग उस पर परदा डाल दें। किसी के घर में चोरी हो जाय और लोग छिपा लें। अगर यही हाल रहा, तो समझ लो कि किसी की आबरू न बचेगी। भगवान ने सभी को बेटियाँ दी हैं, कुछ उनका खियाल करो। औरत की आबरू कोई हँसी-खेल नहीं है। इसके पीछे सिर कट जाते हैं, लहू की नदी बह जाती है। मैं और किसी से नहीं पूछता, ठाकुरदीन, तुम्हें भगवान का भय है, पहले तुम्ही आये थे, तुमने यहाँ क्या देखा? क्या मैं और सुभागी, दोनों घीसू और विद्याधर का हाथ नहीं पकड़े हुए थे? देखो; मुँहदेखी नहीं, साथ कोई न जायगा, जो कुछ देखा हो, सच कह दो।"

ठाकुरदीन धर्म-भीरु प्राणी था। ये बातें सुनकर भयभीत हो गया। बोला—"चोरी- डाके की बात तो मैं कुछ नहीं जानता, यही पहले भी कह चुका, बात बदलनी नहीं आती। हाँ, जब मैं आया तो तुम और सुभागी दोनों लड़कों को पकड़े चिल्ला रहे थे।"

सूरदास—"मैं उन दोनों को उनके घर से तो नहीं पकड़ लाया था?"

ठाकुरदीन—“यह दैव जाने। हाँ, चोर-चोर की आवाज मेरे कान में आई थी।"

सूरदास—"अच्छा, अब मैं तुमसे पूछता हूँ जमादार, तुम आये थे न? बोलो, यहाँ जमाव था कि नहीं?"