सूरदास—'जब तक जीता हूँ, तब तक तो रहूँगा, मरने के बाद देखी जायगी।"
कोई सूरदास को धमकाता था, कोई समझाता था। वहाँ वही लोग रह गये थे, जो इस मुआमले को दबा देना चाहते थे। जो लोग इसे आगे बढ़ाने के पक्ष में थे, वे बजरंगी और नायकराम के भय से कुछ कह न सकने के कारण अपने-अपने घर नले गये थे। इन दोनों आदमियों से वैर मोल लेने की किसी में हिम्मत न थी। पर सूरदास अपनी बात पर ऐसा अड़ा कि किसी भाँति मानता ही न था, अंत को यही निश्चय हुआ कि इसे थाने जाकर रपट कर आने दो। हम लोग थानेदार हो को राजी कर लेंगे। दस-बीस रुपये से गम खायेंगे।
नायकराम—“अरे, वही लाला थानेदार हैं न? उन्हें मैं चुटकी बजाते-बजाते गाँठ लूँगा। मेरी पुरानी जान-पहचान है।"
जगधर—"पंडाजी, मेरे पास तो रुपये भी नहीं हैं, मेरी जान कैसे बचेगी?"
नायकराम—"मैं भी तो परदेस से लौटा हूँ। हाथ खाली हैं। जाके कहीं रुपये की फिकिर करो।"
जगधर—"मैं सूरे को अपना हितू समझता था। जब कभी काम पड़ा है, उसकी मदद की है। इसी के पीछे भैरो से मेरी दुसमनी हुई। और, अब भी यह मेरा न हुआ!"
नायकराम—"यह किसी का नहीं है और सबका है। जाकर देखो, जहाँ से हो सके, २५) तो ले ही आओ।"
जगधर—"भैया, रुपये किससे माँगने जाऊँ? कौन पतियायेगा?"
नायकराम—"अरे, विद्या की अम्माँ से कोई गहना ही माँग लो। इस बखत तो प्रान बचें, फिर छुड़ा देना।"
जगधर बहाने करने लगा—"वह छल्ला तक न देगी; मैं मर भी जाऊँ, तो कफन के लिए रुपये न निकालेगी।" यह कहते-कहते वह रोने लगा। नायकराम को उस पर दया आ गई। रुपये देने का वचन दे दिया।
सूरदास प्रातःकाल थाने की ओर चला, तो बजरंगी ने कहा-"सूरे, तुम्हारे सिर पर मौत खेल रही है, जाओ।"
जमुनी सूरे के पैरों से लिपट गई और रोती हुई बोली—“सूरे, तुम हमारे बैरी हो जाओगे, यह कभी आसा न थी।"
बजरंगी ने कहा—"नीच है, और क्या। हम इसको पालते ही चले आते हैं। भूखों कभी नहीं सोने दिया। बीमारी-आरामी में कभी साथ नहीं छोड़ा। जब कभी दूध माँगने आया, खाली हाथ नहीं जाने दिया। इस नेकी का यह बदला! सच कहा है, अंधों में मुरौवत नहीं होती। एक पासिन के पीछे!"
नायकराम पहले ही लपकर थाने जा पहुँचे और थानेदार से सारा वृत्तांत सुनाकर कहा—“पचास का डौल है, कम न ज्यादा। रपट ही न लिखिए।"