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रंगभूमि

सूरदास—'तो यह सब मुझसे क्या कहते हो भाई, सुभागी देबी हो, चाहे हरजाई हो, वह जाने, उसका काम जाने। मैंने अपने घर में चोरों को पकड़ा है, इसकी थाने में जरूर इत्तला करूँगा, थानेवाले न सुनेंगे, तो हाकिम से कहूँगा। लड़के लड़कों की राह रहें तो लड़के हैं ; सोहदों की राह चलें, तो सोहदे हैं। बदमासों के और क्या सींग-पूँछ होती है?"

बजरंगी—"सूरे, कहे देता हूँ, खून हो जायगा।"

सूरदास—"तो क्या हो जायगा। कौन कोई मेरे नाम को रोनेवाला बैठा हुआ है?"

नायकराम ने वहाँ ठहरना व्यर्थ समझा। क्यों नींद खराब करें? चलने लगे, तो जगधर ने कहा "पंडाजी, तुम भी जाते हो, यहाँ क्या होगा?" नायकराम ने जवाब दिया-"भाई, सूरदास मानेगा नहीं, चाहे लाख कहो। मैं भी तो कह चुका, कहो और हाथ-पैर पड़, पर होना-हवाना कुछ नहीं। घीसू और विद्या की तो बात ही क्या, मिठुआ भी होता, तो सूरे उसे भी न छोड़ता। जिद्दी आदमी है।"

जगधर—“ऐसा कहाँ का धन्ना सेठ है कि अपने मन ही की करेगा। तुम चलो, जरा डाँटकर कहो तो।"

नायकराम लौटकर सूरदास से बोले—"सूरे, कभी-कभी गाँव-घर के साथ मुलाहजा भी करना पड़ता है। लड़कों की जिंदगानी खराब करके क्या पाओगे?"

सूरदास-"पंडाजी, तुम भी औरों की-सी कहने लगे! दुनिया में कहीं नियाव है कि नहीं? क्या औरत की आबरू कुछ होती ही नहीं? सुभागी गरीब है, अबला है, मजूरी करके अपना पेट पालती है, इसलिए जो कोई चाहे, उसकी आबरू बिगाड़ दे? जो चाहे, उसे हरजाई समझ ले?"

सारा मुहल्ला एक हो गया, यहाँ तक कि दोनों चौकीदार भी मुहल्लेवालों की सी कहने लगे। एक बोला-"औरत खुद हरजाई है।”

दूसरा—"मुहल्ले के आदमी चाहें, तो खून पचा लें, यह कौन-सा बड़ा जुर्म है।"

पहला—"सहादत ही न मिलेगी, तो जुर्म क्या साबित होगा।"

सूरदास —'सहादत तो जब न मिलेगी, जब मैं मर जाऊँगा। वह हरजाई है?"

चौकीदार—'हरजाई तो है ही। एक बार नहीं, सौ बार उसे बाजार में तरकारी बेचते और हँसते देखा है।"

सूरदास—"तो बजार में तरकारी बेचना और हँसना हरजाइयों का काम है?"

चौकीदार—"अरे, तो जाओगे तो थाने ही तक न! वहाँ भी तो हमीं से रपट करोगे?".

नायकराम—"अच्छी बात है, इसे रपट करने दो। मैं देख लूँगा। दरोगाजी कोई बिराने आदमी नहीं हैं।"

सूरदास—"हाँ, दरोगाजी के मन में जो आये करें, दोस-पाप उनके साथ है।"

नायकराम—"कहता हूँ, मुहल्ले में न रहने पाओगे।"