जमाने के लिए सभी पहुँच जाते हैं। लेकिन यहाँ आकर देखते हैं, तो न चोर, न चोर का भाई, बल्कि अपने ही मुहल्ले के लौंडे हैं।
एक स्त्री बोली—“यह जमाने की खूबी है कि गाँव-घर का विचार भी उठ गया, किसकी आबरू बचेगी!"
ठाकुरदीन—"ऐसे लौंडों का सिर काट लेना चाहिए।"
नायकराम—"चुप रहो ठाकुरदीन, यह गुस्सा करने की बात नहीं, रोने की बात है।
जगधर, बजरंगी, जमुनी सिर झुकाये चुप खड़े थे, मुँह से बात न निकलती थी। बजरंगी को तो ऐसा क्रोध आ रहा था कि घिसू का गला दबा दे। यह जमाव और हल-चल देखकर कई कांस्टेबिल भी आ पहुचे। अच्छा शिकार फँसा, मुठ्ठियाँ गरम होंगी। तुरंत दोनों युवकों की कलाइयाँ पकड़ लो। जमुनी ने रोकर कहा-"ये लौंडे मुँह में कालिख लगानेवाले हैं। अच्छा होगा, छ-छ महीने की सजा काट आयेगे, तब इनकी आँखें खुलेंगी। समझाते-समझाते हार गई कि बेटा, कुराह मत चलो, लेकिन कौन सुनता है? अब जाके चक्की पीसो। इससे तो अच्छा था कि बाँझ ही रहती।"
नायकराम—"अच्छा, अब अपने-अपने घर जाते जाव। जमादार, लौंडे हैं, छोड़ दो, आओ चलें।"
जमादार—"ऐसा न कहो पण्डाजी, कोतवाल साहब को मालूम हो जायगा, तो समझेंगे, इन सबों ने कुछ ले-देकर छोड़ दिया होगा।"
नायकराम—"क्या कहते हो सूरे, अब ये लोग जायँ न?"
ठाकुरदीन—"हाँ और क्या। लड़कों से भूल-चूक हो ही जाती है। काम तो बुरा किया, पर अब जाने दो, जो हुआ सो हुआ।"
सूरदास—"मैं कौन होता हूँ कि जाने दूँ! जाने दें कोतवाल, डिपटी, हाकिम लोग!"
बजरंगी—"सूरे, भगवान जानता है, जान का डर न होता, तो इस दुष्ट को कच्चा हो चबा जाता।”
सूरदास—"अब तो हाकिम लोगों के हाथ में है, छोड़ें चाहे सजा दें।"
बजरंगी—"तुम कुछ न करो, तो कुछ न होगा। जमादारों को हम मना लेंगे।"
सूरदास—"तो भैया, साफ-साफ बात यह है कि मैं बिना सरकार में रपट हिये न मानूँगा, चाहे सारा मुहल्ला मेरा दुसमन हो जाय।"
बजरंगी—"क्या यही होगा सूरदास? गाँव-घर, टोले-मुहल्ले का कुछ लिहाज न करोगे? लड़कों से भूल तो हो ही गई, अब उनकी जिंदगानी खराब करने से क्या मिलेगा?"
जगघर—"सुभागी ही कहाँ की देवी है! जब से भैरो ने छोड़ दिया, सारा मुहल्ला उसका रंग-ढंग देख रहा है। बिना पहले की साँठ-गाँठ के कोई किसी के घर नहीं घुसता!