हिल रहा हो। मुख पर एक रंग आता था, एक रंग जाता था। धड़का लगा हुआ था “कहीं रानी साहब गुस्से में भरी वहीं से बिगड़ती हुई न आयें, या कहला दें, चली जा, नहीं मिलती! बिना एक बार उनसे मिले, तो मैं न जाऊँगी, चाहे वह हजार बार दुत्कारें।"
एक मिनट भी न गुजरने पाया था कि रानीजी एक शाल ओढ़े हुए द्वार पर आ गई और उससे टूटकर गले मिलीं, जैसे कोई माता ससुराल से आनेवाली बेटी को गले लगा ले। उनकी आँखों से आँसुओं की वर्षा होने लगी। अवरुद्ध कंठ से बोली-“तुम यहीं क्यों खड़ी हो गई बेटी, अंदर क्यों न चली आई! मैं तो नित्यप्रति तुम्हारी बाट जोहती रहती थी। तुमसे मिलने को जी तड़प-तड़पकर रह जाता था। मुझे आशा हो रही थी कि तुम आ रही हो, पर तुम आती न थीं। कई बार यों ही स्टेशन तक गई कि शायद तुम्हें देख पाऊँ। ईश्वर से नित्य मनाती थी कि एक बार तुमसे मिला दे। चलो, भीतर चलो। मैंने तुम्हें जो दुर्वचन कहे थे, उन्हें भूल जाओ। (दरबान से) यह बैग उठा ले। महरी से कह दे, मिस सोफिया का पुराना कमरा साफ कर दे। बेटी, तुम्हारे कमरे की ओर ताकने की हिम्मत नहीं पड़ती, दिल भर-भर आता है।"
यह कहते हुए सोफिया का हाथ पकड़े अपने कमरे में आई और उसे अपनी बगल में मसनद पर बैठाकर बोलीं-"आज मेरी मनोकामना पूरी हो गई। तुमसे मिलने के लिए जी बहुत बेचैन था।"
सोफिया का चिंता-पीड़ित हृदय इस निरपेक्षित स्नेह-बाहुल्य से विह्वल हो उठा। वह केवल इतना कह सकी-"मुझे भी आपके दर्शनों की बड़ी अभिलाषा थी। आपसे दया-भिक्षा माँगने आई हूँ।"
रानी-“बेटी, तुम देवी हो, मेरी बुद्धि पर परदा पड़ गया था। मैंने तुम्हें पहचाना न था। मुझे सब मालूम है बेटी, सब सुन चुकी हूँ। तुम्हारी आत्मा इतनी पवित्र है, यह मुझे न मालूम था। आह! अगर पहले से जानती।"
यह कहते-कहते रानीजी फूट-फूटकर रोने लगीं। जब चित्त शांत हुआ, तो फिर बोली-"अगर पहले से जान गई होती, तो आज इस घर को देखकर कलेजा ठंडा होता। आह! मैंने विनय के साथ घोर अन्याय किया। तुम्हें न मालूम होगा बेटी, ज़ब दुमने......( सोचकर) वीरपालसिंह ही नाम था न? हाँ, जब तुमने उसके घर पर रात के समय विनय का तिरस्कार किया, तो वह लजित होकर रियासत के अधिकारियों के पास कैदियों पर दया करने के लिए दौड़ता रहा। दिन-दिन-भर निराहार और निर्जल पड़ा रहता, रात-रात-भर पड़ा रोया करता, कभी दीवान के पास जाता, कभी एजेंट के पास, कभी पुलिस के प्रधान कर्मचारी के पास, कभी महाराजा के पास। सबसे अनुनय-विनय करके हार गया। किसी ने न सुनी। कैदियों की दशा पर किसी को दया न आई। बेचारा विनय हताश होकर अपने डेरे पर आया। न जाने किस सोच में बैठा था कि मेरा पत्र उसे मिला। हाय! (रोकर) सोफी, वह पन्न नहीं था; विष का