विनय--“सोफी, घबराओ नहीं, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।"
सोफो-"नहीं-नहीं, ईश्वर के लिए नहीं। मैं अकेली ही जाऊँगी।"
विनय गाड़ी में आकर बैठ गये। गाड़ी रवाना हो गई। जरा देर बाद सोफिया ने कहा-"तुम न आते, तो मैं शायद घर तक न पहुँचती। मुझे ऐसा ज्ञात हो रहाथा कि प्राण निकले जा रहे हैं। सच बताना विनय, तुमने मुझ पर मोहनी तो नहीं डालदी है? मैं इतनी अधीर क्यों हो गई हूँ?"
विनय ने लज्जित होकर कहा-"क्या जाने सोफी, मैंने एक क्रिया तो की है। नहींकह सकता कि वह मोहिनी थी या कुछ और!"
सोफी-"सच?"
विनय-"हाँ, बिलकुल सच। मैं तुम्हारी प्रेम-शिथिलता से डर गया था कि कहीं तुम मुझे फिर न परीक्षा में डालो।"
सोफी ने विनय की गरदन में हाथ डाल दिये और बोली-"तुम बड़े छलिया हो। अपना जादू उतार लो, मुझे क्यों तड़पा रहे हो?"
विनय-"क्या कहूँ, उतारना नहीं सीखा, यही तो भूल हुई।"
सोफी-"तो मुझे भी वही मंत्र क्यों नहीं सिखा देते? न मैं उतार सकूँगी, न तुम उतार सकोगे। (एक क्षण बाद) लेकिन नहीं, मैं तुम्हें संज्ञा-हीन न बनाऊँगी। दो मेंसे एक को तो होश रहना चाहिए। दोनों मदमत्त हो जायेंगे, तो अनर्थ हो जायगा। अच्छा बताओ, कौन-सी क्रिया की थी?"
विनय ने अपनी जेब से वह जड़ी निकालकर दिखाते हुए कहा-"इसी की धूनी देता था।"
सोफी-"जब मैं सो जाती थी, तब?"
विनय-(सकुचाते हुए) "हाँ, सोफी, तभी।"
सोफी-"तुम बड़े ढीठ हो। अच्छा, अब यही जड़ी मुझे दे दो। तुम्हारा प्रेम शिथिल होते देखू गी, तो मैं भी यही क्रिया करूँगी।"
यह कहकर उसने जड़ी लेकर रख ली। थोड़ी देर बाद उसने पूछा-"यह तो बताओ, वहाँ तुम रहोगे कहाँ ? मैं रानीजी के पास तुम्हें न जाने दूँगी।"
रिझ्य-"अब मेरा कोई मित्र नहीं रहा। सभी मुझसे असंतुष्ट हो रहे होंगे। नायकराम के घर चला जाऊँगा। तुम वहीं आकर मुझसे मिल लिया करना । वह तो घर पहुँच ही गया होगा।"
सोफिया-"कहीं जाकर कह न दे!"
विनय-"नहीं, मंदबुद्धि हो, पर विश्वासघाती नहीं।"
सोफिया-"अच्छी बात है। देखें, रानीजी से मुराद मिलती है या मौत!"
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