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रंगभूमि


भीलों के खर्राटों की आवाजें आने लगी। सोफो चलने को उठी, तो उसने विनय को ऐसी चितवनों से देखा, जिसमें प्रेम के सिवा और भी कुछ था-आद्र आकांक्षा झलक रही थी। एक आकर्षण था, जिसने विनय को सिर से पैर तक हिला दिया। जब वह चली गई, तो उन्होंने एक पुस्तक उठा ली और पढ़ने लगे। लेकिन ज्यों-ज्यों क्रिया का समय आता था, उनका दिल बैठा जाता था। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई जबरदस्ती उन्हें ठेल रहा है। जब उन्हें यकीन हो गया कि सोफिया सो गई होगी, तो वह धीरे से उठे, प्याले में आग ली और चले। आज वह कल से भी ज्यादा भयभीत हो रहे थे। एक बार जी में आया कि प्याले को पटक हूँ। लेकिन इसके एक ही क्षण बाद उन्होंने सोफी के कमरे में कदम रखा। आज उन्होंने आँखें ऊपर उठाई ही नहीं। सिर नीचा किये धूनी सुलगाई और राख छिड़ककर चले आये। चलती बार उन्होंने सोफिया का सुखचंद्र देखा। ऐसा भासित हुआ कि वह मुस्किरा रही है। कलेजा धक-से हो गया। सारे शरीर में सनसनी-सी दौड़ गई। ईश्वर! अब लाज तुम्हारे हाथ है, इसने देख न लिया हो! विद्यु द्गति से अपनी कोठरी में आये, दीपक बुझा दिया और चारपाई पर गिर पड़े। घंटों कलेजा धड़कता रहा।

इस भाँति पाँच दिनों तक विनय ने बड़ी कठिनाइयों से यह साधना की, और इतने ही दिनों में उन्हें सोफिया पर इसका असर साफ नजर आने लगा। यहाँ तक कि पाँचवें दिन वह दोपहर तक उनके साथ भीलों की झोपड़ियों की सैर करती रही। उसके नेत्रों में गंभीर चिंता की जगह अब एक लालसा-पूर्ण चंचलता झलकती थी और अधरों पर मधुर हास्य की आभा। आज रात को भोजन के उपरांत वह उनके पास बैठकर समाचार-पत्र पढ़ने लगी और पढ़ते-पढ़ते उसने अपना सिर विनय की गोद में रख दिया, और उनके हाथों को अपने हाथों में लेकर बोली-"सच बताओ विनय, एक बात तुमसे पूछू, बताओगे न? सच बताना, तुम यह तो नहीं चाहते कि यह बला सिर से टल जाय? मैं कहे देती हूँ, जीते जी न टलूँगी, न तुम्हें छोडूंगी, तुम भी मुझसे भागकर नहीं जा सकते। किसी तरह न जाने दूँगी, जहाँ जाओगे, मैं भी चलूँगी, तुम्हारे गले का हार बनी रहूँगी।"

यह कहते-कहते उसने विनय के हाथ छोड़ दिये और उनके गले में बाँहें डाल दी। विनय को ऐसा मालूम हुआ कि मेरे पैर उखड़ गये हैं और मैं लहरों में बहा जा रहा हूँ। एक विचित्र आशंका से उनका हृदय काँप उठा, मानों उन्होंने खेल में सिंहनी को जगा दिया हो। उन्होंने अज्ञात भाव से सोफी के कर-पाश से अपने को मुक्त कर लिया और बोले-"सोफी!"

सोफी चौंक पड़ी, मानों निद्रा में हो। फिर उठकर बैठ गई और बोली-"मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि मैं पूर्व-जन्म में, उससे पहले भी, आदि से तुम्हारी हूँ, कुछ स्वप्न-सा याद आता है कि हम और तुम किसी नदी के किनारे एक झोपड़े में रहते थे। सच!"

विनय ने सशंक होकर कहा-"तुम्हारा जी कैसा है?".