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रंगभूमि


आधी रात हुई, तो विनय प्याली में आग और हाथ में वह रक्त-सिंचित जड़ी लिये हुए सोफी की कोठरी के द्वार पर आये। कंबल का परदा पड़ा हुआ था । झोपड़े में किवाड़ कहाँ ! कंबल के पास खड़े होकर उन्होंने कान लगाकर सुना। सोफ़ी मीठी नींद सो रही थी। वह थर-थर काँपते, पसीने से तर, अंदर घुसे । दीपक के मंद प्रकाश में सोफी निद्रा में मग्न लेटी हुई ऐसी मालूम होती थी, मानों मस्तिष्क में मधुर कल्पना विश्राम कर रही हो । विनय के हृदय पर आतंक-सा छा गया। कई मिनट तक मंत्र-मुग्ध-से खड़े रहे, पर अपने को सँभाले हुए, मानों किसी देवी के मंदिर में हैं। उन्नत हृदयों में सौंदर्य उपासना-भाव को जाग्रत कर देता है, वासनाएँ विश्रांत हो जाती हैं । विनय कुछ देर तक सोफी को भक्ति-भाव से देखते रहे । तब वह धीरे से बैठ गये,प्याले में जड़ी का एक टुकड़ा तोड़कर रख दिया और उसे सोफिया के सिरहाने की ओर खिसका दिया । एक क्षण में जड़ी की सुगंध से सारा कमरा बस उठा। ऊद और अंबर में यह सुगंध कहाँ ? धुएँ में कुछ ऐसी उद्दीपन-शक्ति थी कि विनय का चित्त चंचल हो उठा । ज्यों ही धुआँ बंद हुआ, विनय ने प्याले से जड़ी की राख निकाल ली। भीलनी के आदेशानुसार उसे सोफिया पर छिड़क दिया और बाहर निकल आये। लेकिन अपनी कोठरी में आकर वह घंटों बैठे पश्चात्ताप करते रहे। बार-बार अपने नैतिक भावों को चोट पहुँचाने की चेष्टा की | इस कृत्य को विश्वासघात, सतीत्व-हत्या कहकर मन में घृणा का संचार करना चाहा । सोते वक्त निश्चय किया कि बस, इस क्रिया का आज ही से अंत है । दूसरे दिन दिन-भर उनका हृदय खिन्न, मलिन, उग्नि रहा । ज्यों-ज्यों रात निकट आती थी, उन्हें शंका होती जाती थी कि कहीं मैं फिर यह क्रिया न करने लगूं । दो-तीन भीलों को बुला लाये और उन्हें अपने.. पास सुलाया ।.भोजन करने में बड़ी देर की, जिसमें चारपाई पर पड़ते-ही-पड़ते नींद आ जाय । जब.भोजन करके उठे, तो सोफी आकर उनके पास बैठ गई । यह पहला ही अवसर था.कि वह रात को उनके पास बैठी बातें करती रही । आज के समाचार-पत्रों में प्रभु सेवक.को पूना में दी हुई वक्तता प्रकाशित हुई थी । सोफी ने उसे उच्च स्वर से पढ़ा। गर्व से उसका सिर ऊँचा हो गया । बोली-"देखो, कितना विलासप्रिय आदमी था, जिसे.सदैव अच्छे वस्त्रों और अन्य सुख-सामग्रियों की धुन सवार रहती थी। उसकी कितनी.कायापलट हुई है ! मैं समझतो थी, इससे कभी कुछ न होगा, आत्मसेवन में ही इसका जीवन व्यतीत होगा। मानव-हृदय के रहस्य कितने दुर्बोध होते हैं ! उसका यह त्याग और अनुराग देखकर आश्चर्य होता है।"

विनय-"जब प्रभु सेवक इस संस्था के कर्णधार हो गये, तो मुझे कोई चिंता नहीं। डॉक्टर गंगुली उसे दवा बाँटनेवालों की मंडली बनाकर छोड़ते । पिताजी पर मेरा. विश्वास नहीं, और इंद्रदत्त तो बिलकुल उजड्ड है । प्रभु सेवक से ज्यादा योग्य पुरुष न मिल सकता था । वह यहाँ होते, तो बलाय लेता । यह दैवी सहायता है, और अब मुझे आशा होती है कि हमारी साधना निष्फल न होगी ।"