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रंगभूमि


ने सिर उठाया, तो विनय को सचेष्ट नेत्रों से अपनी ओर ताकते पाया। लजाकर आँखें नीची कर ली और बोली—“आज तो बड़ी सरदी है, कहाँ जाओगे! बैठो, तुम्हें इस पुस्तक के कुछ भाग सुनाऊँ। बहुत ही सुपाठ्य पुस्तक है।" यह कहकर उसने आँगन की ओर देखा, भीलनी गायब थो। शायद लकड़ी बटोरने चली गई थी। अब दस बजे के पहले न आयेगी। सोफिया कुछ चिंतित-सी हो गई।

विनय ने उत्सुकता के साथ कहा—"नहीं सोफी, आज कहीं न जाऊँगा। तुमसे कुछ बातें करने को जी चाहता है। किताब बंद करके रख दो। तुम्हारे साथ रहकर भी तुमसे बातें करने को तरसता रहता हूँ।"

यह कहकर उन्होंने सोफिया के हाथों से किताब छीन लेने की चेष्टा की। सोफिया किताब को दृढ़ता से पकड़कर बोली—"ठहरो-ठहरो, क्या करते हो! अब यही शरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। बैठो, इस फ्रेंच फिलॉसफर के विचार सुनाऊँ। देखो, उसने कितनी विशालहृदयता से धार्मिक निरूपण किया है!"

विनय—"नहीं, आज दस मिनट के लिए तुम इस फिलॉसफर से अवकाश माँग लो और मेरी ये बातें सुन लो, जो किसी सिंजर-बद्ध पक्षी को भाँति बाहर निकलने के लिए तड़फड़ा रही हैं, आखिर मेरे इस वनवास की कोई अवधि है, या सदैव जीवन के सुख-स्वप्न ही देखता रहूँगा?"

सोफिया—"इस लेखक के विचार उस जवाब से कहीं मनोरंजक हैं, जो मैं तुम्हें दे सकती हूँ। मुझे इन पर कई शंकाएँ हैं। संभव है, विचार परिवर्तन से उनकी निवृत्ति हो जाय।"

विनय-"नहीं, यह किताब बंद करके रख दो। आज मैं समर के लिए कमर कस-कर आया हूँ। आज तुमसे वचन लिये बिना तुम्हारा दामन न छोड़ेगा। क्या अब भी मेरी परीक्षा कर रहो हो?"

सोफिया ने किताब बंद करके रख दी और प्रेम-गंभीर भाव से बोली- मैंने तो अपने को तुम्हारे चरणों पर डाल दिया, अब और मुझसे क्या चाहते हो"

विनय—“अगर मैं देवता होता, तो तुम्हारी प्रेमोपासना से संतुष्ट हो जाता; लेकिन मैं भी तो इच्छाओं का दास, क्षुद्र मनुष्य हूँ। मैंने जो कुछ पाया है, उससे संतुष्ट नहीं हूँ। मैं और चाहता हूँ, सब चाहता हूँ। क्या अब भी तुम मेरा आशय नहीं समझी? मैं पक्षी को अपनी मुंडेर पर बैठे देखकर संतुष्ट नहीं, उसे अपने पिंजड़े में जाते देखना चाहता हूँ। क्या और भी स्पष्ट रूप से कहूँ? मैं सर्वंभोगी हूँ, केवल सुगंध से मेरी तृप्ति नहीं होती।"

सोफिया—"विनय, मुझे अभी विवश न करो, मैं तुम्हारी हूँ। मैं इस वक्त यह बात जितने शुद्ध भाव और निष्कपट हृदय से कह रही हूँ, उससे अधिक किसी मंदिर में, कलीसा में या हवन कुंड के सामने नहीं कह सकती। जिस समय मैंने तुम्हारा तिरस्कार किया था, उस समय भी तुम्हारी थी। लेकिन क्षमा करना, मैं कभी कोई ऐसा