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रंगभूमि


अनिश्चित दशा का अंत कर देना चाहते थे। कैसे करें, यह समझ में नहीं आता था। कौन इस प्रसंग को छेड़े? कदाचित् बातों में कोई आपत्ति खड़ी हो जाय। सोफिया के लिए विनय का सामीप्य काफी था, वह उन्हें नित्य आँखों से देखती थी, उनके हर्ष और अमर्ष में सम्मिलित होती थी, उन्हें अपना समझती थी। इससे अधिक वह कुछ न चाहती थी। विनय रोज आस-पास के देहातों में विचरने चले जाते थे। कोई स्त्री उनसे अपने परदेशी पुत्र या पति के नाम पत्र लिखातो, कहीं रोगियों को दवा देते, कहीं पारस्परिक कलहों में मध्यस्थ बनना पड़ता, भोर के गये पहर रात को लौटते। यह उनकी नित्य की दिनचर्या थी। सोफिया चिराग जलाये उनकी बाट देखा करती। जब वह आ जाते, तो उनके हाथ-पैर धुलवाकर भोजन कराती, दिन-भर की कथा प्रेम से सुनती और तब दोनों अपनी-अपनी कोठरियों में सोने चले जाते। वहाँ विनय को अपना घास का बिछौना बिछा हुआ मिलता। सिरहाने पानी की हाँड़ी रखी होती। सोफिया इतने ही में संतुष्ट थी। अगर उसे विश्वास हो जाता कि मेरा संपूर्ण जीवन इसी भाँति कट जायगा, तो वह अपना अहोभाग्य समझती। यही उसके जीवन का मधुर स्वप्न था। लेकिन विनय इतने धैर्यशील, इतने विरागी न थे। उनको केवल आध्यात्मिक संयोग से संतोष न होता था। सोफिया का अनुपम सौंदर्य, उसकी स्वर्गापम वचन-माधुरी, उसका विलक्षण अंग-विन्यास उनकी शृङ्गारमयी कल्पना को विकल करता रहता था। उन्होंने कुचक्रों में पड़कर एक बार उसे खो दिया था। अब दुबारा उस परीक्षा में न पड़ना चाहते थे। जब तक इसकी संभावना उपस्थित थी, उनके चित्त को कभी शाँति न हो सकती थी।

ये लोग रेलवे स्टेशन के पते से अपने नाम पत्र-पत्रिकाएँ, पुस्तकें आदि मँगा लिया करते थे। उनसे संसार की प्रगति का बोध हो जाता था। भीलों से उनको कुछ प्रेम-सा भी हो गया था। यहाँ से कहीं और चले जाने की उन्हें इच्छा ही न होती थी। दोनों को शंका थी कि इस सुरक्षित स्थान से निकलकर हमारी न जाने क्या दशा हो जाय, न जाने हम किस भँवर में जा पड़ें। इस शांति-कुटीर को दोनों ही गनीमत समझते थे। सोफिया को विनय पर विश्वास था, वह अपनी आकर्षण-शक्ति से परिचित थी। विनय को सोफिया पर विश्वास न था। वह अपनी आकर्षण-शक्ति से अनभिज्ञ थे।

इस तरह एक साल गुजर गया। सोफ़िया विनय को जल-पान कराकर अँगीठी के सामने बैठी एक किताब देख रही थी। कभी मार्मिक स्थलों पर पेंसिल से x निशान करती, कभी प्रश्न-चिह्न बनाती, कहीं लकीर खींचती। विनय को शंका हो रही थी कि कहीं यह तल्लोनता प्रेम-शैथिल्य का लक्षण तो नहीं है? पढ़ने में ऐसी मग्न है कि ताकती तक नहीं। कपड़े पहने, बाहर जाना चाहते थे। ठंडी हवा चल रही थी। जाड़े के कपड़े थे ही नहीं। कंबल काफी न था। अलसाकर अँगीठी के पास आये और माँची पर बैठ गये। सोफिया की आँखें किताब में गड़ी हुई थीं। विनय की लालसा-युक्त दृष्टि अवसर पाकर निर्विघ्न रूप से उसके रूप-लावण्य की छटा देखने लगी। सहसा सोफिया