यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४३४
रंगभूमि

ताहिरअली ने कहा---'इस वक्त इससे ज्यादा मुमकिन नहीं।"

चमार था तो सीधा, पर उसे कुछ संदेह हो गया, गर्म पड़ गया।

सहसा मिस्टर जान सेवक आ पहुँचे। आज झल्लाये हुए थे। प्रभु सेवक की उद्दडता ने उन्हें अव्यवस्थित-सा कर दिया था। यह झमेला देखा, तो कठोर स्वर से बोले- "इसके रुपये क्यों नहीं दे देते? मैंने आपसे ताकोद कर दी थी कि सब आदमियों का हिसाब रोज साफ कर दिया कीजिए। आप क्यों बाकी रखते हैं? क्या आपको तहवील में रुपये नहीं हैं?"

ताहिरअली रुपये लाने चले, तो कुछ ऐसे घबराये हुए थे कि साहब को तुरंत संदेह हो गया। रजिस्टर उठा लिया और हिसाब देखने लगे। हिसाब साफ था। इस चमार के रुपये अदा हो चुके थे। उसके अंगूठे का निशान मौजूद था। फिर यह बकाया कैसा? इतने में और कई चमार आ गये। इस चमार को रुपये लिये जाते देखा, तो समझे, आज हिसाब चुकता किया जा रहा है। बोले-“सरकार, हमारा भी मिल जाय।"

साहब ने रजिस्टर जमीन पर पटक दिया और डपटकर बोले- "यह क्या गोलमाल है? जब इनसे रसीद ली गई, तो इनके रुपये क्यों नहीं दिये गये?"

ताहिरअली से और कुछ तो न बन पड़ा, साहब के पैरों पर गिर पड़े और रोने लगे। सेंद में बैठ कर घूरने के लिए बड़े घुटे हुए आदमी की जरूरत होती है।

चमारों ने परिस्थिति को ताड़कर कहा-"सरकार, हमारा पिछला कुछ नहीं है, हम तो आज के रुपयों के लिए कहते थे। जरा देर हुई, माल रख गये थे। खाँ साहब उस बखत नमाज पढ़ते थे।"

साहब ने रजिस्टर उठाकर देखा, तो उन्हें किसी-किसी नाम के सामने एक हलका-सा x का चिह्न दिखाई दिया। समझ गये, हजरत ने ये ही रुपये उड़ाये हैं। एक चमार से, जो बाजार से सिगरेट पीता आ रहा था, पूछा—"तेरा नाम क्या है?"

चमार—"चुनकू।”

साहब—'तेरे कितने रुपये बाकी हैं?"

कई चमारों ने उसे हाथ के इशारे से समझाया कि कह दे, कुछ नहीं। चुनकू इशारा न समझा बोला—“१७) पहले के थे, ९) आज के।"

साहब ने अपनी नोटबुक पर उसका नाम टाँक लिया। ताहिरअली को कुछ कहा न सुना, एक शब्द भी न बोले। जहाँ कानून से सजा मिल सकती थी, वहाँ डाँट-फटकार की जरूरत क्या? सब रजिस्टर उठाकर गाड़ी में रखे, दफ्तर में ताला बंद किया; सेफ में दोहरे ताले लगाये, तालियाँ जेब में रखी और फिटन पर सवार हो गये। ताहिरअली "की इतनी हिम्मत भी न पड़ी कि कुछ अनुनय-विनय करें। वाणी ही शिथिल हो गई। स्तंभित-से खड़े रह गये। चमारों के चौधरी ने दिलासा दिया-"आप क्यों डरते हो खाँ साहब, आपका बाल तो बाँका होने न पायेगा। हम कह देंगे, अपने रुपये भर पाये हैं। क्यों है चुनकुआ, निरा गँवार ही है, इसारा भी नहीं समझता?"