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रंगभूमि


है, माथे पर शिकन पड़ गई। बोली-“मेरी जगह पर आप होतीं, तो ऐसा न कहतीं। आखिर क्या आप अपने धार्मिक विचारों को छोड़ बैठती?”

इंदु-“यह तो नहीं कह सकती कि क्या करती; पर घरवालों को प्रसन्न रखने की चेष्टा किया करती।"

सोफिया-"आपकी माताजी अगर आपको जबरदस्ती कृष्ण की उपासना करने से रोकें, तो आप मान जायँगी?"

इंदु-"हाँ, मैं तो मान जाऊँगी। अम्माँ को नाराज न करूँगी। कृष्ण तो अंतर्यामी हैं, उन्हें प्रसन्न रखने के लिए उपासना की जरूरत नहीं। उपासना तो केवल अपने मम के संतोष के लिए है।"

सोफिया- (आश्चर्य से) “आपको जरो भी मानसिक पीड़ा न होगी?"

इंदु-"अवश्य होगी; पर उनकी खातिर मैं सह लूंगी।"

सोफिया--"अच्छा, अगर वह आपकी इच्छा के विरुद्ध आपका विवाह करना चाहें तो?"

इंदु-(लजाते हुए) "वह समस्या तो हल हो चुकी। माँ-बाप ने जिससे उचित समझा, कर दिया। मैंने जबान तक नहीं खोली।"

सोफिया-"अरे, यह कब?"

इंदु-"इसे तो दो साल हो गये। ( आखें नीची करके) अगर मेरा अपना वश होता, तो उन्हें कभी न वरती, चाहे कुँवारी ही रहती। मेरे स्वामी मुझसे प्रेम करते हैं, धन की कोई कमी नहीं। पर मैं उनके हृदय के केवल चतुर्थांस की अधिकारिणी हूँ, उसके तीन भाग सार्वजनिक कामों को भेंट होते हैं। एक के बदले चौथा पाकर कौन संतुष्ट हो सकता है। मुझे तो बाजरे की पूरी बिस्कुट के चौथाई हिस्से से कहीं अच्छी मालूम होती है। क्षुधा तो तप्त हो जाती है, जो भोजन का यथार्थ उद्देश्य है।”

सोफिया—"आपकी धार्मिक स्वाधीनता में तो बाधा नहीं डालते?”

इंदु—"नहीं। उन्हें इतना अवकाश कहाँ है?"

सोफिया—"तब तो मैं आपको मुबारकबाद दूंगी।"

इंदु—"अगर किसी कैदी को बधाई देना उचित हो, तो शौक से दो।"

सोफिया—"बेड़ी प्रेम की हो, तो?"

इंदु—“ऐसा होता, तो मैं तुमसे बधाई देने को आग्रह करती। मैं बँध गई, वह मुक्त हैं। मुझे यहाँ आये तीन महीने होने आते हैं; पर तीन बार से ज्यादा नहीं आये, और वह भी एक-एक घंटे के लिए। इसी शहर में रहते हैं, दस मिनट में मोटर आ सकती है; पर इतनी फुर्सत किसे है। हाँ, पत्रों से अपनी मुलाकात का काम निकालना चाहते हैं, और वे पत्र भी क्या होते हैं, आदि से अंत तक अपने दुखड़ों से भरे हुए। आज यह काम है, कल वह काम है; इनसे मिलने जाना है, उनका स्वागत करना है। म्युनिसिपैलिटी के प्रधान क्या हो गये, राज्य मिल गया। जब देखो, वही धुन सवार!