जैनब-"सुनती हो रकिया, इनकी बातें? लड़के को खर्च क्या दे रहे हैं, गोया मेरे ऊपर कोई एहसान कर रहे हैं। मुझे क्या, तुम उसे खर्च भेजो या बुलाओ। उसके वहाँ पढ़ने से यहाँ पेट थोड़े ही भर जायगा। तुम्हारा भाई है, पढ़ाओ या न पढ़ाओ, मुझ पर क्या एहसान!"
ताहिर-"तो तुम्ही बताओ, रुपये कहाँ से लाऊँ?"
जैनब--"मरदों के हजार हाथ होते हैं। तुम्हारे अब्बाजान दस ही रुपये पाते थे कि ज्यादा? २०) तो मरने के कुछ दिन पहले हो गये थे। आखिर कुनबे को पालते थे कि नहीं। कभी फाके की नौबत नहीं आई। मोटा-महीन दिन में दो बार जरूर मयस्सर हो जाता था। तुम्हारी तालीम हुई, शादी हुई, कपड़े-लत्ते भी आते थे। खुदा के करम से बिसात के मुआफिक गहने भी बनते थे। वह तो मुझसे कभी न पूछते थे, कहाँ से रुपये लाऊँ? आखिर कहीं से लाते ही तो थे!"
ताहिर-"पुलिस के मुहकमे में हर तरह की गुंजाइश होती है। यहाँ क्या है? गिनी बोटियाँ, नपा शोरबा।"
जैनब-"मैं तुम्हारी जगह होती, तो दिखा देती कि इसी नौकरी में कैसे कंचन बरसता है। सैकड़ों चमार हैं। क्या कहो, तो सब एक-एक गटठा लकड़ी न लायें? सबों के यहाँ छान छप्पर पर तरकारियाँ लगी होंगी। क्यों नहीं तुड़वा मँगाते? खालों के दाम में भी कमी-बेशी करने का तुम्हें अख्तियार है। कोई यहाँ बैठा देख नहीं रहा है। दत के पौने दस लिख दो, तो क्या हरज हो? रुपये की रसीदों पर अंगूठे का निशान ही न बनवाते हो? निशान पुकारने जाता है कि मैं दस हूँ या पौने दस? फिर अब तुम्हारा एतबार जम गया। साहब को सुभा भी नहीं हो सकता। आखिर इस एतबार से कुछ अपना फोयदा भी तो हो कि सारी जिंदगी दूसरों ही का पेट भरते रहोगे? इस वक्त मी तुम्हारी रोकड़ में सैकड़ों रुपये होंगे। जितनी जरूरत समझो, इस वक्त निकाल लो। जब हाथ में रुपये आयें, रख देना। रोज की आमदनी-खर्च का मीजान ही मिलना चाहिए न? यह कौन-सी बड़ी बात है? आज खाल का दाम न दिया, कल दिया, इसमें क्या तरद्दुद है? चमार कहीं फरियाद करने न जायगा। सभी ऐसा करते हैं, और इसी तरह दुनिया का काम चलता है। ईमान दुरुस्त रखना हो, तो इंसान को चाहिए कि फकीर हो जाय।"
रकिया-"बहन, ईमान है कहाँ, जमाने का काम तो इसी तरह चलता है।"
ताहिर-"भई, जो लोग करते हों, वे जानें, मेरी तो इन हथकंडों से रूह फना होती है। अमानत में हाथ नहीं लगा सकता। आखिर खुदा को भी तो मुँह दिखाना है। उसकी मरजी हो, जिंदा रखे या मार डाले।"
जैनब-“वाह रे मरदुए, कुरबान जाऊँ तेरे ईमान पर। तेरा ईमान सलामत रहे, चाहे घर के आदमी भूखों मर जायँ। तुम्हारी मंशा यही है कि ये सब मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जायँ। बस, और कुछ नहीं। फिक्र तो आदमी को अपने बीबी-