समझा और कठोर-से-कठोर आघात जो तुम कर सकती थीं, वह कर बैठी। किंतु बात एक ही है! तुम्हें मुझको पुलिस की सहायता करते देखकर इतना शोकमय आश्चर्य न हुआ होगा, जितना मुझको तुम्हें मिस्टर क्लार्क के साथ देखकर हुआ। इस समय भी तुम उसी प्रतिहिंसक नोति का अवलंबन कर रही हो, या कम-से-कम मुझसे कह चुकी हो। इतने पर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती। तुम्हारी झिड़कियाँ सुनकर मुझे जितना मानसिक कष्ट हुआ और हो रहा है, वही मेरे लिए असाध्य था। उस पर तुमने इस समय और भी नमक छिड़क दिया। कभी तुम इस निर्दयता पर खून के आँसू बहाओगी। खैर।"
यह कहते-कहते बिनय का गला भर आया। फिर वह और कुछ न कह सके। सोफिया ने आँखों में असीम अनुराग भरकर कहा-"आओ, अब हमारी तुम्हारी मैत्री हो जाय। मेरी उन बातों को क्षमा कर दो।"
विनय ने कंठ-स्वर को सँभालकर कहा—"मैं कुछ कहता हूँ! अगर जी न भरा हो, तो और जो चाहो, कह डालो। जब बुरे दिन आते हैं, तो कोई साथी नहीं होता। तुम्हारे यहाँ से आकर मैंने कैदियों को मुक्त करने के लिए अधिकारियों से, मिस्टर क्लार्क से, यहाँ तक कि महाराजा साहब से भी जितनी अनुनय-विनय की, वह मेरा दिल ही जानता है। पर किसी ने मेरी बातें तक न सुनीं। चारों तरफ से निराश होना पड़ा।
सोफो--"यह तो मैं जानती थी। इस वक्त कहाँ जा रहे हो?"
विनय-"जहन्नुम में।"
सोफी-"मुझे भी लेते चलो।"
विनय-"तुम्हारे लिए स्वर्ग है।"
एक क्षण बाद फिर बोले--"घर जा रहा हूँ। अम्माँजी ने बुलाया है। मुझे देखने के लिए उत्सुक हैं।"
सोफिया-"इंद्रदत्त तो कहते थे, तुमसे बहुत नाराज हैं?"
विनय ने जेब से रानीजी का पत्र निकालकर सोफी को दे दिया और दूसरी ओर ताकने लगे। कदाचित् वह सोच रहे थे कि यह तो मुझसे इतनी खिंच रही है, और मैं बरबस इसकी ओर दौड़ा जाता हूँ। सहसा सोफिया ने पत्र फाड़कर खिड़की के बाहर फेंक दिया और प्रेम-विह्वल होकर बोली-“मैं तुम्हें न जाने दूंगी। ईश्वर जानता है, न जाने दूंगी। तुम्हारे बदले मैं स्वयं रानीजी के पास जाऊँगी और उनसे कहूँगी, तुम्हारी अपराधिनी मैं हूँ....' यह कहते-कहते उसकी आवाज फँस गई। उसने विनय के कंधे पर सिर रख दिया और फूट-फूट कर रोने लगी। आवाज हलकी हुई, तो फिर बोली-"मुझसे वादा क्रो कि न जाऊँगा। तुम नहीं जा सकते। धर्म और न्याय के नियम से नहीं जा सकते। बोलो, वादा करते हो?"
उन सजल नयनों में कितनी करुणा, कितनी याचना, कितनी विनय, कितना आग्रह था!