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रंगभूमि


हो गई और बोली-"माता, तुम्हारे पुत्र की हत्या करनेवाली मैं हूँ जो दंड चाहो, दो! तुम्हारे सामने खड़ी हूँ।"

वृद्धा ने विस्मित होकर कहा-"क्या तू ही वह पिशाचिनी है, जिसने दरबार से लड़ने के लिए डाकुओं को जमा किया है! नहीं, तू नहीं हो सकती। तू तो मुझे करुणा और दया की मूर्ति-सी दीखती है।"

सोफी-"हाँ माता, मैं ही वह पिशाचिनी हूँ।"

वृद्धा-"जैसा तूने किया, वैसा तेरे आगे आयेगा। मैं तुझे और क्या कहूँ। मेरी भाँति तेरे दिन भी रोते बीतें।"

एंजिन ने सीटी दी। सोफी संज्ञा-शून्य-सी खड़ी थी। वहाँ से हिली तक नहीं। गाड़ी चल पड़ी। सोफी अब भी वहीं खड़ी थी। सहसा विनय गाड़ी से कूद पड़े, सोफिया का हाथ पकड़कर गाड़ी में बैठा दिया और बड़ी मुश्किल से आप भी गाड़ी में चढ़ गये। एक पल का भी विलंब होता, तो वहीं रह जाते।

सोफिया ने ग्लानि-भाव से कहा-"विनय, तुम मेरा विश्वास करो या न करो; पर मैं सत्य कहती हूँ कि मैंने वीरपाल को एक हत्या की भी अनुमति नहीं दी। मैं उसकी घातक प्रवृत्ति को रोकने का यथाशक्ति प्रयत्न करती रही। पर यह दल इस समय प्रत्याघात की धुन में उन्मत्त हो रहा है। किसी ने मेरी न सुनी। यही कारण है कि मैं अब यहाँ से जा रही हूँ। मैंने उस रात को. आमर्ष की दशा में तुमसे न जाने क्या-क्या बातें की, लेकिन ईश्वर ही जानते हैं, इसका मुझे कितना खेद और दुःखं है। शांत मन से विचार करने पर मुझे मालूम हो रहा है कि निरंतर दूसरों के मारने और दूसरों के हाथों मारे जाने के लिए आपत्काल में ही हम तत्पर हो सकते हैं। यह दशा स्थायी नहीं हो सकती। मनुष्य स्वभावतः शांतिप्रिय होता है। फिर जब सरकार की दमन-नीति ने निर्बल प्रजा को प्रत्याधात पर आमादा कर दिया, तो क्या सबल सरकार और भी कठोर नीति का अवलंबन न करेगी। लेकिन मैं तुमसे ऐसी बातें कर रही हूँ, मानों तुम घर के आदमी हो। मैं भूल गई थी कि तुम राजभक्तों के दल में हो। पर इतनी दया करना कि मुझे पुलिस के हवाले न कर देना। पुलिस से बचने के लिए ही मैंने रास्ते में गाड़ी को रोककर सवार होने की व्यवस्था की। मुझे संशय है कि इस समय भी तुम मेरी ही तलाश में हो।"

विनयसिंह की आँखें सजल हो गई। खिन्न स्वर में बोले-"सोफिया, तुम्हें अख्तियार है, मुझे जितना नीच और पतित चाहो, समझो; मगर एक दिन आयेगा, जब तुम्हें इन वाक्यों पर पछताना पड़ेगा और तुम समझोगी कि तुमने मेरे ऊपर कितना अन्याय किया है। लेकिन जरा शांत मन से विचार करो, क्या घर पर, यहाँ आने के पहले, मेरे पकड़े जाने की खबर पाकर तुमने भी वही नीति न धारण की थी? अंतर केवल इतना था कि मैंने दूसरों को बरबाद किया, तुम अपने ही को बरबाद करने पर तैयार हो गई। मैंने तुम्हारी नीति को क्षम्य समझा, वह आपद्धर्म था। तुमने मेरी नीति को अक्षम्य